: १२ : आत्मधर्म: २०२
सर्वज्ञनी व्यवहारस्तुति छे, अने पोताना ज्ञायकस्वभावनी सन्मुख थवुं ते सर्वज्ञनी निश्चयस्तुति छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे निश्चयस्तुति छे ते सर्वज्ञतानो उपाय छे.
अरिहंत भगवान तीर्थंकरदेवने जन्मे त्यारथी ज मल–मूत्रनो अभाव ईत्यादि दस अतिशयो
होय छे, त्यार पछी केवळज्ञान थतां तेमने उपसर्गनो अभाव, कवलाहारनो अभाव, वीस हजार हाथ
ऊंचे आकाश गमन ईत्यादि दस अतिशयो होय छे; अने गंधोदक वृष्टि, धर्मचक्र, अष्टमंगळ वगेरे १४
अतिशयो देवकृत होय छे.–आम कुल ३४ अतिशयो होय छे.
आवा चोत्रीस अतिशयने जे न ओळखे अने अरिहंतदेवने पण आहार–मळ–रोग वगेरे
मनावे ते तो व्यवहारथी पण अरिहंत परमेष्ठीने ओळखतो नथी, एटले अरिहंत परमेष्ठी प्रत्ये तेने
साची भक्ति पण होती नथी. तो पछी तेने चारित्र वगेरे तो क््यांथी होय?
अहीं तो निश्चय रत्नत्रयनी आराधना पूर्वक पंचपरमेष्ठीना गुणोने ओळखीने तेमनी स्तुति
करे छे. प्रद्मप्रभमुनिराज प्रद्मप्रभजिनराजनी स्तुति करतां कहे छे के–आत्मगुणोनां घातक एवा
घनघाति कर्मो तेने अर्हंत भगवाने हणी नाख्या छे, अने घातिकर्मोना नाशथी ते भगवान केवळज्ञान
आदि चतुष्टयने प्राप्त थया छे. केवा छे ते केवळज्ञानादि चतुष्टय? श्री मुनिराज कहे छे के अहो! ते
केवळज्ञानादि चतुष्टय त्रण लोकने प्रक्षोभना हेतुभूत छे; तीर्थंकरने केवळज्ञान थतां त्रण लोकमां
आनंदमय खळभळाट थाय छे. आवा केवळज्ञानमय अरिहंत भगवाननो जे निर्णय करे तेने पोताना
असंख्य आत्मप्रदेशोमां पण आनंदनो खळभळाट थाय छे.
जुओ, आमां स्तुति करनार अने स्तुत्य ए बंने परमेष्ठी छे.–मुनिपरमेष्ठी अरिहंतपरमेष्ठीनी
स्तुति करे छे, पांचमा परमेष्ठी पहेला परमेष्ठीनी स्तुति करे छे. एक अरिहंत भगवान बीजा अरिहंत
भगवान वगेरेनी स्तुति न करे, केम के तेओ ते पूर्ण स्वरूपने पामी गयेला छे. परंतु आचार्य–
उपाध्याय–के साधु–जेओ हजी साधक छे, तेओ अरिहंत वगेरे पंचपरमेष्ठीनी स्तुति करे छे. अहीं
स्तुतिकार पद्मप्रभमुनिराज पद्मप्रभुभगवाननी स्तुति करतां कहे छे के–
सुसीमा माताना सुपुत्र श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र जयवंत छे.–केवा छे ते जिनेन्द्र?–प्रख्यात
तेमनुं शरीर छे, ए वात प्रसिद्ध छे के तीर्थंकर भगवाननुं शरीर रोग रहित परम औदारिक छे,
खोराक वगर पण ते हजारो लाखो वर्षो सुधी एवुं ने एवुं रहे छे. वळी प्रफुल्लित कमळ जेवां
तेमनां नेत्र छे, अंतरमां तो केवळज्ञान अने केवळदर्शनरूपी अतीन्द्रिय चक्षु खीली गयां छे, ने
शरीरनां चक्षु पण महासुंदर प्रफुल्लित छे. सर्वोत्कृष्ट पुण्यरूप जे तीर्थंकरपद तेनुं ते रहेठाण छे.
पंडित एटले के साधक जीवोने विकसाववा माटे ते भगवान सूर्यसमान छे, जेम सूर्यने उदय थतां
कमळ खीली ऊठे छे तेम सर्वज्ञनो निर्णय थतां साधकजीवना श्रद्धा–ज्ञानकमळ खीली ऊठे छे.
मुनिजनोरूपी वनने खीलववा माटे तेओ वसंतऋतु जेवा छे. तथा कर्मनी सेनाना तेओ शत्रु छे,
अने सर्व जीवोने हितरूप तेमनुं चरित्र छे. जो के कोई जीवोनुं हित करुं–एवी रागवृत्तिनुं उत्थान
भगवानने नथी, पण जे जीव भगवानना वीतरागी चारित्रने ओळखे छे ते जीवनुं हित थाय छे,
तेथी भगवाननुं चारित्र तेने हितरूप थयुं–एम कहेवाय छे. आ रीते भगवानने ओळखीने
स्तुतिकार कहे छे के आवा पद्मप्रभ तीर्थंकर जयवंत छे.
पद्मप्रभमुनिराजे पांच श्लोक वडे प्रद्मप्रभ परमेष्ठीनी स्तुति करी छे; बीजा श्लोकमां कहे छे के
हे नाथ! सर्व गुणोनो समूह आपनामां एकठो थयो छे तेथी आप सर्वगुणना ह्यमाज छो. कामदेवरूपी
हाथीने नष्ट करवामां आप सिंह जेवा छो. दुष्ट कर्मोने आपे नष्ट कर्या छे, ने समस्त विभावरूपी
संसारनो त्याग कर्यो छे. वळी हे नाथ! आप सर्व विद्याओनां प्रकाशक छो, आपनो आत्मा स्वयं
सुखरूपे परिणमी गयो छे; विद्वानोनो समूह आपना चरणो पासे ढळी पडे छे. मूर्ख जीवो भगवानने