Atmadharma magazine - Ank 202
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म: २०२
छे–तृप्त छे–सुखी छे. शक्तिपणे जे गुणो हता ते गुणो सिद्ध भगवानने पर्यायरूपे व्यक्त थई गया
छे....अनंतगुणोनी शक्तिथी चैतन्यकमळ पूर्णपणे खीली गयुं छे, चैतन्यशक्तिनो पूर्ण विकास थई
गयो छे. बहिरात्मा, अंतरात्मा ने परमात्मा एम त्रण प्रकारना जे आत्मा छे तेमां सिद्धभगवंतो
परमात्मा छे, परम आत्मा एटले उत्कृष्ट आत्मा; उत्कृष्ट गुणो तेमने खीली गया छे तेथी तेओ
परमात्मा छे.–तेओ क््यां रहे छे? भावथी तो पोताना अनंतगुण समूहमां रहे छे, अने आकाशक्षेत्रनी
अपेक्षाए तेओ लोकना उत्कृष्टस्थाने (लोकाग्रे) बिराजमान छे. सिद्ध भगवान लोकमां सर्वोत्कृष्ट छे
ने तेमनुं स्थान पण लोकमां सौथी ऊंचुं छे. ते सिद्धभगवंतो अभूतपूर्व एवी सिद्धदशाने पाम्या ते
पाम्या....हवे अनंतकाळे पण तेमांथी च्यूत थईने संसारमां नहीं आवे, तेओ तो सदाय सिद्धपणे ज
रहेशे. अरिहंत होय ते सदाय अरिहंतपणे न रहे अल्पकाळे सिद्ध थई जाय, परंतु सिद्ध तो सदाय
सिद्धपणे ज रहे छे.
जेम ऊंचा जिनमंदिरमां सोनाना शिखर उपर सुंदर मणि जडयो होय ने शोभी ऊठे, तेम
सिद्धभगवंतो आ त्रणलोकरूपी मंदिरना शिखर उपर चूडामणि जेवा शोभी रह्या छे. सिद्धभगवान
व्यवहारथी ज लोकाग्रे छे, निश्चयथी तो ते परमदेव पोताना सहज परम चैतन्य चिंतामणिस्वरूप
नित्य शुद्ध निजरूपमां ज वसे छे. ते भगवान सर्वे दोषोने नष्ट करीने देहमुक्त अशरीरी परमात्मा
थया छे; एकलो असंख्यप्रदेशी चैतन्य पिंड ज्ञानदर्शनथी युक्त छे.–आवा सिद्धिभगवंतो जगतमां
अनंत छे. जगतमां मनुष्यो करतां सिद्धभगवंतो अनंतगणा छे. त्रणलोकमां उत्तम होय तो आ
सिद्धपद ज छे, एनाथी बीजुं कांई उत्तम नथी. श्री मुनिराज कहे छे के अहा! आवा सिद्धपदनी प्राप्ति
अर्थे हुं सिद्धभगवानने नमुं छुं ‘
नमो सिद्धाणं’ –निज स्वरूपमां स्थित एवा ते सिद्धभगवंतोने हुं
फरी फरीने वंदुं छे.
आ रीते सिद्ध परमेष्ठीनुं स्वरूप ओळखीने तेमनी स्तुति करी. बाकीना त्रण परमेष्ठीनुं स्वरूप
हवे कहेशे.
जगतथी जुदो.........जगतनो जाणनार
जगतथी जुदो एवो आ जीव पोते पोतानी सामे न जोतां
बहारमां जगतनी सामे ज जुए छे, तेथी ते दुःखी थाय छे. जगतनो
जाणनार तो पोते छे, जो पोते पोतानी सामे जुए तो दुःख टळे ने
आत्मशांति वेदाय. माटे, जगतनो मोह छोडीने आत्मानी सामे जोवानो
उपदेश आपतां नाटक–समयसारमां कहे छे के:–
ए जगवासी यह जगत इन्हसों तोहि न काज।
तेरे घटमें जग बसे तामें तेरो राज।।४५।। [
बंधद्वार]
हे भव्य! आ संसारी जीवोथी के आ संसारथी तारे कंई संबंध
नथी; तारा ज्ञानघटमां आखुं जगत वसे छे, तेमां ज तारुं राज छे.
आखुं जगत ज्ञेयपणे तारा ज्ञानमां झळकी रह्युं छे, माटे जगतनो संबंध
छोडीने तारा ज्ञान साथे संबंध जोड, ज्ञाननी सन्मुख था...तेमां ज तारी
शोभा छे.