Atmadharma magazine - Ank 202
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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श्रावण: २४८६ : प :
बहिरात्मानी द्रष्टि ज बहारमां छे; बाह्य पदार्थो उपेक्षायोग्य (हेय) होवा छतां तेमां ते
उपादेयबुद्धि करे छे, पण अंतरनां ज्ञानानंदस्वरूपने उपादेय करतो नथी–ते तरफ वळतो नथी; आ रीते
हितकारी स्वतत्त्वने तो हेय करे छे, ने हेय एवा परतत्त्वोने उपादेय करे छे, तेथी ते जीव राग–द्वेष
मोहथी बंधाय ज छे, असमाधिपणे ज वर्ते छे ने अहित ज पामे छे. ज्ञानी पोताना ज्ञानानंदस्वरूप
सिवाय बीजा कोईने उपादेय मानता नथी, एक शुद्ध स्वतत्त्वने ज उपादेय मानीने तेने उपासे छे–तेना
श्रध्धा–ज्ञान–चारित्र करे छे ने तेथी ते कर्मबंधनथी छूटीने मुक्ति पामे छे.
रमता रमता ऊर्ध्वता ज्ञायकता सुखभास
वेदकता चैतन्यता ये सब जीव विलास.
अने
तनता मनता वचनता जडता जड संमेल
गुरुता लघुता गमनता ए अजीवके खेल.
ज्ञानी जाणे छे के आ तन–मन–वचन वगेरे तो जड अजीवना खेल छे, ते कोई मारां कार्य नथी,
तेनी साथे मारे संबंध नथी. हुं तो तन–मन–वचन रहित, ज्ञान–दर्शन–सुखनो पिंड छुं; मारो विलास तो
चैतन्यरूप छेे. चैतन्यविलास ज मारुं स्वतत्त्व छे ने देहादिक जडनो विलास ते परतत्त्व छे. आम स्व–
परतत्त्वोने भिन्न भिन्न जाणीने ज्ञानी पोताना स्वतत्त्वने ज उपादेय करीने तेमां एकाग्र थाय छे, ने
परतत्त्वोने हेय जाणीने तेनी उपेक्षा करे छे.–आवा ज्ञानी तो स्वतत्त्वना आश्रये मुक्ति पामे छे. ने मूढ
बहिरात्मा तो देहादिक परद्रव्योने ज उपादेय मानीने पोताना स्वरूपथी च्यूत थईने बंधाय छे.
निजस्वरूपमां एकत्वथी जीव मुक्ति पामे छे; ने पर पदार्थोमां एकत्वथी जीव बंधाय छे,–
भेदविज्ञानतः सिद्धाः ये किल केचन।
तस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन।।
स्वतत्त्व शुं, परतत्त्व शुं,–एवा स्व–परना भेदविज्ञान वगर जीवनी मति परमां ज रह्या करे पण
स्वहितने साधे नहि. मति एटले बुद्धि क््यां वर्ते छे तेना उपर बंध–मोक्षनो आधार छे. जेनी मति अंतर्मुख
थईने शुध्धआत्मामां वर्ते छे ते मोक्ष पामे छे, ने जेनी मति बहिर्मुख परमां ज वर्ते छे ते बंधाय छे.
जीव, अजीवादि तत्त्वोने जाणवानुं तात्पर्य पण ए ज छे के स्वद्रव्यमां सन्मुख थवुं ने
परद्रव्योथी परांग्मुख थवुं; हितकारी तत्त्वोने उपादेय मानवा, ने अहितकारी तत्त्वोने हेय जाणीने
जाणीने शुद्धात्मानो तो आश्रय करवो; अने आस्रव–बंध ते अहितकारी तत्त्वो छे, ते परना आश्रये
थाय छे माटे साततत्त्वोने जाणीने ते अजीवनो आश्रय छोडवो. आम साततत्त्वो जाणीने तेमां हेय–
उपादेयरूप प्रवृत्तिथी जीवना हित प्रयोजननी सिध्धि थाय छे.ाा ४३ाा
अज्ञानीने बाह्यद्रष्टि होवाथी, बहारमां देखाता आ त्रण लिंगरूप शरीरोने ज आत्मा तरीके जाणे
छे; अने ज्ञानी तो अंर्तद्रष्टिवडे ते स्त्री–पुरुषना शरीरथी जुदो आत्मा जाणे छे–एम हवे कहे छे–
दश्यमानमिदं मूढस्त्रिलिंगमवबुध्यते।
इदमित्यवबुद्धस्तु निष्पन्नं शब्दवर्जितम्।।४४।।
मूढ अज्ञानी बहिरात्मा बाह्यमां द्रश्यमान एवा स्त्री–पुरुष आदि शरीरने ज देखे छे, एटले
तेने ज आत्मा माने छे, आत्मा ज त्रणलिंगना त्रणभेदरूप छे एम ते माने छे; पण ज्ञानी तो
शरीरथी भिन्न अनादिस्वयंसिध्ध आत्माने एकरूप जाणे छे.
जे जीव रागने ज आत्मा माने छे, रागथी लाभ माने छे, ते जीव खरेखर शरीरने ज आत्मा
माने छे, केम के शरीर ते रागनुं फळ छे. ज्ञानी जाणे छे के आ देह हुं नथी, जेनाथी आ देह मळ्‌यो ते
भाव पण मारुं स्वरूप नथी, हुं तो ज्ञायकशरीरी अशरीरी छुं. अतीन्द्रियज्ञान ज हुं छुं. अज्ञानी
द्रश्यमान देहने ज देखे छे, चैतन्य तो तेने अद्रश्य ज लागे छे ज्ञानी जाणे छे के द्रश्यमान