Atmadharma magazine - Ank 202
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म: २०२
एवा देहादि हुं नथी, पण तेनो जे द्रष्टा छे ते ज हुं छुं. हुं पुरुष नथी, हुं तो आत्मा छुं, हुं स्त्री नथी, हुं
तो आत्मा छुं. ईन्द्रियना कोई चिह्नो हुं नथी, ने ते चिह्नो वडे हुं ओळखातो नथी; हुं तो शरीरना
चिह्नोथी पार अलिंग छुं, मारो आत्मा ईंद्रियादि लिंगोथी अग्राह्य छे एटले अलिंगग्राह्य छे.
(२४८२: असाड सुद बीज)
आ शरीर आकृतिओने कारणे जीवने विकार थाय छे–एम जे माने छे ते जीव पोताने स्त्री–
पुरुष वगेरे शरीररूपे ज माने छे. ईंद्रिय वगेरेना अवलंबन वडे ज्ञान थाय–एम जे माने छे ते पण
खरेखर ईंद्रियोथी भिन्न आत्माने नथी मानतो पण ईंद्रियोने ज आत्मा माने छे. पांच ईंद्रियो के तेना
कोई पण विषयो तेमां जे सुख माने ते पण ईंद्रियने अने शरीरने ज आत्मा माने छे. अतीन्द्रिय
आत्मा ज्यां सुधी लक्षमां–प्रतीतमां ने अनुभवमां न आवे त्यां सुधी कोईने कोई प्रकारे शरीरमां
आत्मबुद्धि वेदाती ज होय. अंतरात्मपणुं थाय तो बहिरात्मपणुं टळे, एटले अंतर्मुख थाय तो
बहिरात्मपणुं टळे, एटले अंतर्मुख थईने देहादिथी पार आत्माने ओळखे तो तेमां ज ममत्वबुद्धि
थाय, ने देहादिमां ममत्वबुद्धि टळे–पछी गमे तेवा सुंदर देहमां पण तेने स्वप्नेय सुखनी कल्पना न
थाय.
सम्यग्द्रष्टि जीव वस्तु स्वरूपनो ज्ञाता छे, देहथी भिन्न पोतानुं चैतन्यस्वरूप तेनी प्रतीतमां
आवी गयुं छे, तेथी ते पोताने चैतन्यस्वरूपे ज अनुभवे छे, स्त्री वगेरेना के पशु वगेरेना देहरूपे ते
पोताने मानतो नथी.
जुओ, आ भेदज्ञाननी बुद्धि! आ उपलक धारणानी वात नथी पण अंतरना वेदननी वात छे. देह
अने राग बंनेथी पार थईने द्रष्टिए अंतरमां अतीन्द्रिय आनंदवाळुं चैतन्य तत्त्व देखी लीधुं छे, ते द्रष्टि
हवे आखा जगतने पोताथी बाह्यपणे ज देखे छे–अने बाह्यवस्तुमां सुख केम होय? तेथी कह्युं छे के–
सकल जगत ते एठवत अथवा स्वप्न समान,
ते कहीए ज्ञानीदशा बाकी वाचा–ज्ञान.
आ संसारमां जीवने देह–स्त्री वगेरेना संयोगो अनंतवार आव्या ने गया, ए रीते संयोगपणे
अनंतवार भोगवाई गया होवाथी ते बधा पदार्थो चैतन्यने माटे एठ जेवा छे, एठने कोण फरीने
मुखमां नांखे? तेमां कोण सुख माने? ए रीते ज्ञानीने चैतन्यथी बाह्य आखा जगतमां क््यांय सुखनी
कल्पना नथी माटे तेने तो ते एठ समान ज छे. अने, जगतना पदार्थो जगतमां छे, परंतु पोते
अंतर्मुख थईने ज्यां पोताना आत्मामां वळ्‌यो, त्यां ते स्वतत्त्वमां जगत भासतुं नथी माटे तेने स्वप्न
समान कह्युं.
अहा! आवा चैतन्यतत्त्वना अनुभवनी धूनमां जगतनी अनुकूळता–प्रतिकूळता क््यां जोवी?
चैतन्यनी धून आडे जगतनी अनुकूळता–प्रतिकूळता जोवामां ज्ञानी रोकाता नथी, एटले गमे तेवा
प्रसंगमां पण चैतन्यनी समाधि तेने वर्त्या ज करे छे. सम्यग्दर्शनमां ज महान समाधिनी ताकात छे.
सम्यग्दर्शन गमे त्यारे गमे तेवा प्रसंगमां पण स्ववस्तुने भूलतुं नथी, स्वविषयमां तेने भ्रांति थती ज
नथी, एटले तेने शांति अने समाधि थाय छे. आ सिवाय जेने देहादिनी क्रियामां कर्तापणुं वर्ते छे एवा
अज्ञजीवोने कदी पण समाधि के शांति थती नथी.
भ्रांति होय त्यां शांति नहि,
शांति होय त्यां भ्रांति नहि.