ज्ञानविद्यानो सतत अभ्यास करो
श्री समयसार गाथा २०६ उपरनुं पू. गुरुदेवनुं आ
प्रवचन अषाड वद ८ ना रोज रेकोर्डिंगद्वारा फरीने
सांभळवा मळ्युं. आ प्रवचनमां आत्माना अनुभवनी
सरस प्रेरणा मळे छे, तेथी रेकोर्डिंग–प्रवचननो सार अहीं
आपवामां आव्यो छे. ते वांचतां ख्याल आवशे के
गुरुदेवना रेकोर्डिंग–प्रवचनमां पण केटली मीठास छे!
निजपदनी प्राप्ति केम थाय? पूर्णपद अर्थात् मोक्ष केम पमाय? ते वात आचार्यदेव समजावे छे.
आ ज्ञानस्वरूप निजपद छे ते ज्ञानकळाथी ज प्राप्त थाय छे, भेदज्ञानरूप कळाना अभ्यासथी ज
मोक्षपद पमाय छे. माटे हे जीवो! ज्ञानकळावडे निजपदने अनुभववानो तमे सतत अभ्यास करो. आ
ज्ञानकळा सिवाय बीजी कोई रीते मुक्ति पमाती नथी. हे मोक्षार्थी जीवो! रागथी अने जडथी पार
एवा सहजज्ञाननी कळावडे चिदानंद निजपदना अनुभवनो तमे सतत्–निरंतर प्रयत्न करो. आ ज्ञान
कळानो अभ्यास ते ज रागना अने कर्मना नाशनो उपाय छे.
अंतर्मुख थईने चिदानंद भगवानना दर्शन करतां ज कर्मरूपी पहाडना कटके कटका थई जाय छे.
हे जीव! तारे तारा ज्ञानानंदस्वरूपने अनुभववुं होय तो ज्ञानरूपी विद्यागृहमां प्रवेश करीने
ज्ञानविद्यानो अभ्यास कर.
ए ज उपदेश आचार्यदेव हवेनी गाथामां कहे छे–
आमां सदा प्रीतिवंत बन,
आमां संतुष्ट ने
आनाथी बन तुं तृप्त,
तुजने सुख अहो! उत्तम थशे. (२०६)
हे भव्य! तारे सुखी थवुं होय, तारे निजपद पामवुं होय तो तुं आ ज्ञानस्वरूप आत्मानी
प्रीति कर.–केटली प्रीति कर?–के उत्तम प्रीति कर; क््यां सुधी?–के निरंतर! चैतन्यनी प्रीति छोडीने
एक क्षण पण रागनी प्रीति न कर. निरंतर–सतत तुं ज्ञानस्वभावनी ज प्रीति कर....अने तेमां ज
तुं संतुष्ट था. अहो, मारुं सुख, मारो आनंद मारा निजपदमां ज छे,–एम तुं तारामां ज संतुष्ट था.
जेटलुं ज्ञानपद छे तेटलुं ज सत्य आत्मस्वरूप छे, राग छे ते खरेखर आत्मानुं साचुं स्वरूप
नथी. जेटलुं ज्ञान छे तेटलो ज आत्मा छे ने तेटलुं ज अनुभवीय छे. ज्ञानपणे तारा आत्माने
अनुभव, पण रागपणे न अनुभव. रागनो अनुभव तो अनादिथी करी रह्यो छे पण तेमां संतोष न
मळ्यो–सुख न मळ्युं–धर्म न थयो. पण जो आ ज्ञानपणे आत्माने अनुभव तो ते ज क्षणे तने संतोष
थशे–तृप्ति थशे–सुख थशे–धर्म थशे.
मूढ लोको बहारमां अनेक प्रकारनी देवीओने माताजी तरीके भजे छे, ने ते कांईक कल्याण
करी देशे–