: १२ : आत्मधर्म : २०३
करीने सुखनुं साधन बनावुं. परंतु ते हाथ–पग–आंख वगेरे अवयवो तो अजीव छे, ते कांई आत्माना
अंग नथी, तेमज ते अजीव अवयवो आत्माना सुखना साधन नथी. समकिती धर्मात्मा जाणे छे के आ
अवयवो जडनी रचना छे, ते कांई मारुं साधन नथी. आ रीते खरेखर धर्मीनी श्रद्धामां देहादिनो
संथारो ज थई गयो छे, केमके तेनी द्रष्टिमांथी देहनुं स्वामीत्व ऊडी गयुं छे.
आ रीते निगोदथी मांडीने सिद्ध सुधीना समस्त जीवो देह अने देहना अवयवोथी अत्यंत
भिन्न, ज्ञानानंद स्वरूपी छे.
वळी, देहना अवयवोनी जेम रागादि भावो ते पण खरेखर आत्माना अवयवो नथी, ते
आत्माने मोक्षनुं के धर्मनुं किंचित् साधन नथी, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र के जे आत्माना ज अंगभूत
अवयवो छे ते ज आत्माने मोक्षनुं ने सुखनुं साधन छे. परंतु तेने प्राप्त नहि करनारा मूढ अज्ञानी
जीवो रागने धर्मनुं साधन माने छे. चैतन्यमां द्रष्टि कर्या वगर, रागने ज साधन मानीने जे राग
अनादिथी अज्ञानी करी रह्यो छे ते तो तेनो अनादि...रूढ व्यवहार छे, ने मूढताथी अज्ञानी तेमां ज
मूर्छाई रह्यो छे एटले व्यवहारमूढ थईने मोक्षमार्गथी दूर वर्ती रह्यो छे. जड–चेतननुं ने स्वभाव–
विभावनुं भेदज्ञान करावीने मोक्षमार्गनी सिद्धि करनारो जे निश्चयनय तेने तो ते अज्ञानीओ जाणता
पण नथी, जड अने चेतननो संयोग तथा ते संयोगना लक्षे थतो विकार, ते तो अनादिथी चाली रह्यो
छे, तेमां कोई मोक्षमार्ग नथी. निश्चयस्वभावना भानपूर्वक मोक्षमार्ग प्रगट कर्या वगर अनादिना रूढ
व्यवहारने उपचारथी पण मोक्षमार्ग कहेवातो नथी. चैतन्य ज्ञाताप्रभु छे तेना भान वगर तो व्यवहार
मोक्षमार्ग पण होतो नथी. एकला रागरूप व्यवहार तो अज्ञानीने अनादिनो रूढीगत चाल्यो आवे छे
तेमां जे ममत्व करे छे (तेने जरापण मोक्षनुं साधन माने छे) ते तो व्यवहारमूढ छे. निश्चय–
स्वभावनुं जेने भान नथी अने व्यवहार श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रमां ज मोक्ष मानीने जे अटकया छे ते पण
व्यवहारमूढ छे. धर्मात्मा ज्ञानी पोताना शुद्ध आत्माना ज आश्रये मोक्षमार्ग जाणता थका
‘कारणसमयसार’ने (शुद्ध रत्नत्रयरूपे परिणमेला आत्माने) प्राप्त करे छे ने तेओ व्यवहारमां मूर्छाता
नथी, तेने मोक्षमार्ग मानीने तेमां अटकता नथी.
भाई, विकल्पमां कांई परम आनंद के शांति नथी ते विकल्पनी पाछळ चैतन्यतत्त्व छे ते परम
आनंदनुं ने शांतिनुं धाम छे...ते चैतन्यनी सन्मुख थईने तेना श्रद्धा–ज्ञान ने एकाग्रता ते ज मोक्षमार्ग
छे, ते सिवाय बीजो कोई मोक्षमार्ग नथी.
भगवान! तुं तो ‘स...म...य...सा...र’ छो. सर्वे पदार्थोमां सारभूत एवो उत्तम पदार्थ शुद्ध
आत्मा तुं ज छो...ज्ञान ने आनंदरूपे तारो आत्मा ज परिणमे छे, कोई बीजुं तारा ज्ञान के आनंदरूपे
परिणमतुं नथी. कोई विकल्पमां एवी ताकात नथी के ज्ञान आनंदरूपे परिणमे.
ज्ञानानंदस्वभावनुं भान थया पछी धर्मात्माने साधकदशामां व्यवहार होय छे. पण तेमने
निश्चयनुं भान होवाथी ‘व्यवहारमूढता’ होती नथी. ने अज्ञानीने तो निश्चयनुं भान नहि होवाथी
व्यवहारमूढता होय छे. आ रीते, आत्माना मोक्षमार्गनी भूमिकामां ज्ञानीने जे व्यवहार होय ते जुदो, ने
अज्ञानीने जे व्यवहार छे ते जुदो; ज्ञानीने जे व्यवहार छे ते कांई अनादिरूढ नथी, ने तेमां ते मूढ नथी,
अज्ञानीनो निश्चय वगरनो व्यवहार तो अनादिनो रूढ छे ने ते रागादि व्यवहारने ज मोक्षनुं साधन
मानीने अज्ञानी तेमां मूढपणे वर्ते छे. आचार्यदेव कहे छे के जेओ अनादिरूढ व्यवहारमां ज विमूढ छे
अने प्रौढ विवेकवाळा–भेदज्ञान करावनारा–निश्चयमां जेओ आरूढ नथी तेओ परमार्थस्वरूप भगवान
समयसारने जाणता नथी, देखता नथी, अनुभवता नथी; एटले के तेओ मोक्षमार्गमां आव्या नथी.
निश्चय एटले के सत्यार्थ आत्मस्वरूप, तेने जाणवाथी ज अपूर्व भेदज्ञान अने मोक्षमार्ग प्रगटे
छे. परंतु, जेनाथी भेदज्ञान थाय छे एवा निश्चयने तो जेओ जाणता नथी, तेओ रागादिमां
एकत्वबुद्धिथी अनादिना व्यवहारमां ज मूढ वर्ते छे तेओ मोक्षमार्गमां आव्या नथी पण हजी
(–व्यवहार रत्नत्रयनुं पालन करता होय तोपण) संसारमार्गमां ज ऊभा छे, तेने संसारतत्व ज
जाणवुं. जेओ निश्चयने एटले के आत्माना शुद्ध परमार्थ स्वरूपने जाणे छे तेओ ज