भाद्रपद : २४८६ : १प :
अनंत शक्तिसंपन्न
चैतन्यधाम
तेने ओळखी, तेनो अचिंत्य
महिमा लावी, तेनी सन्मुख थाओ
चैतन्यमां बेहद ताकात छे, अनंत शक्ति
संपन्न तेनो अचिंत्य महिमा छे; तेनी शक्तिओने
ओळखे तो तेनो महिमा आवे, ने जेनो महिमा
आवे तेमां सन्मुखता थया विना रहे नहीं.–आ रीते
स्वसन्मुखता थतां अपूर्व सुख–शांति ने धर्म थाय
छे. आवी स्वसन्मुखता कराववा माटे आचार्य
भगवाने चैतन्यशक्तिओनुं अद्भुत वर्णन कर्युं छे.
तेना उपर पू. गुरुदेवना अध्यात्मरसभीनां
प्रवचनोनुं दोहन अहीं आपवामां आव्युं छे. आ ४७
शक्तिओनां विस्तृत प्रवचनो “आत्मप्रसिद्धि”
नामना पुस्तकरूपे प्रसिद्ध थई गया छे, जिज्ञासुओने
ते वांचवा भलामण छे.
(वीर सं. २४८६ ना श्रावण वद १३ थी शरू)
* देहथी आत्मा भिन्न जे आ चैतन्यतत्त्व छे तेना स्वरूपनी महत्ता जीवे कदी जाणी नथी;
पोतानी महत्ताने भूलीने, निजशक्तिने भूलीने विकारमां अने परमां पोतानुं कर्तव्य मानी रह्यो छे, ते
ऊंधीद्रष्टि ज दुःखनी खाण छे. आत्मानुं वास्तविकस्वरूप समजे तो ते छूटे; ते माटे आचार्यदेव तेनी
ओळखाण करावे छे.
* भाई, पर चीजोना कार्यमां तारो अधिकार नथी, अने तारा कार्यमां परचीजनो कांई
अधिकार नथी. ते उपरांत तारा पोतामां पण जे शुभाशुभविकल्पोनुं उत्थान थाय तेमां पण तारुं सुख
नथी, ते पण तारुं खरुं कर्तव्य नथी, तारो चिदानंदस्वभाव तेनाथी जुदो छे.
* ए रीते परथी जुदो ने विकारथी पण जुदो