: १६ : आत्मधर्म : २०३
एवो तारो आत्मा छे,तेनी स्वभावशक्तिओ केवी छे अने तेनुं वास्तविक कर्तव्य शुं छे तेनी आ वात
छे. अनंतशक्तिओ तारा चैतन्यधाममां भरी छे.–पण तेने भूलीने तुं दुःखी थई रह्यो छे.
आत्मसिद्धिनी शरूआतमां ज श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के
जे स्वरूप समज्या विना...पाम्यो दुःख अनंत,
समजाव्युं ते पद नमुं, श्री सद्गुरु भगवंत.
जुओ, केम दुःख पाम्यो?–के स्वरूपने न समज्यो तेथी; दुःखनुं बीजुं कोई कारण नथी. पैसा
विना दुःख पाम्यो एम न कह्युं, स्त्री विना दुःख पाम्यो एम न कह्युं, पुण्य विना दुःख पाम्यो एम पण
न कह्युं, स्वरूप समज्या विना ज दुःख पाम्यो. ते दुःख केम टळे! के स्वरूप समजे तो. आत्मानुं
वास्तविक स्वरूप शुं छे ते समजवा माटेनी आ वात छे.
* अरे प्रभु! तारी मोटप तारा चिदानंदस्वभावथी ज छे, रागथी तारी मोटप नथी. देहादि
संयोगथी तारी मोटप नथी, लाखो–करोडोनी मिलकतथी तारी मोटप नथी; परम महिमावंत एवो जे
विशुद्धज्ञानस्वभाव तेनाथी ज तारी मोटप छे. आवा स्वभावने ज्ञानलक्षणवडे अंतरमां पकडतां
ज्ञाननी निर्मळपरिणति थाय छे, ते निर्मळ ज्ञानपरिणतिमां आनंद, श्रद्धा वगेरे अनंत शक्तिओ पण
भेगी ज परिणमे छे. आवा ज्ञानस्वभावने जाण्या वगर जीव बीजुं बधुं अनंतवार करी चुकयो पण
तेनाथी लेशमात्र सुख पाम्यो नहि.–
मुनिव्रतधार अनंतवार ग्रीवक उपजायो,
पै निज आतमज्ञान बिन सुख लेश न पायो.
मिथ्याद्रष्टि माटेनुं ऊंचामां ऊंचुं स्थान देवलोकमां नवमी ग्रेवेयक छे; अज्ञान सहित व्रत–तप
करीने अनंतवार नवमी ग्रैवेयक सुधी जीव गयो परंतु आत्मज्ञान वगर त्यां पण ते किंचित् सुख न
पाम्यो. अनंत शक्तिसंपन्न चैतन्यस्वभावने क्षणिक रागनी वृत्तिमां वहेंची दीधो, ने रागनो आदर
करीने संसारमां ज रखडयो.
* अंतरमुख स्वभावने ओळखीने तेनो महिमा आवे तो तेनी सन्मुख थवानो प्रयत्न उपडे.
पण ज्यां बहारनो ज महिमा वर्ततो होय के रागनो महिमा वर्ततो होय त्यां स्वसन्मुखतानो प्रयत्न
केम उपडे? ज्यां महिमा भासे त्यांथी केम खसे? चैतन्यमां बेहद ताकात छे, अनंतशक्तिसंपन्न तेनो
अचिंत्य महिमा छे, तेनी शक्तिओने ओळखे तो तेनो महिमा आवे, ने जेनो महिमा आवे तेमां
सन्मुखता थया विना रहे नहि; आ रीते स्वसन्मुख थतां अपूर्व सुख–शांतिने धर्म थाय छे. आवी
स्वसन्मुखता कराववा माटे अहीं आचार्यभगवान चैतन्यनी शक्तिओनुंं वर्णन करे छे;
* पहेली जीवत्व शक्ति छे. शरूआतमां बीजी गाथामां जीवनुं वर्णन कर्युं हतुं. सम्यग्दर्शन–
ज्ञान–चारित्रमां स्थित एवो जीव ते स्वसमय छे, ने ए ज जीवनुं खरुं जीवत्व छे. अहीं चैतन्य भाव
प्राणरूप जीवत्व कहीने जीवत्वशक्ति ओळखावे छे.
* भाई, तुं आत्मद्रव्य छो...तुं सदाय चैतन्यप्राणने धारण करनार छो. ते चैतन्यप्राणथी ज
तारुं जीवत्व छे. आ देहना संयोगथी तारुं जीवत्व नथी, दस प्रकारना प्राणवडे पण तारुं जीवत्व नथी,
तेना वगर पण तारुं जीवत्व टकी रहे छे. देह विना, आयु वगेरे प्राण विना अने राग विना पण तारुं
जीवत्व टकी रहे–एवी तारी अचिंत्य जीवत्वशक्ति छे. जीवत्वशक्ति एवी छे के सदाय चैतन्यभावने
धारण करे छे. चैतन्यभावप्राण कदी कोईथी हणी शकाता नथी. आवा चैतन्यप्राणरूप जीवत्वने जेणे
ओळख्युं तेणे खरूं जीवतर जीव्युं...तेणे अंतरमां पोताना निधान प्राप्त कर्या
* अहा, संतोए चैतन्यनिधान खुल्लां कर्या छे, हवे कयां भव्य जीव आवा चैतन्यनिधानने न
ल्ये? बाह्य निधानोने तरणां जेवा तूच्छ समजीने तेने