: २० : आत्मधर्म : २०३
मगरना मुखमां पडेलो छे. जेम मगरमच्छनो एवो स्वभाव छे के मोढाथी पकडे पछी छोडे नहि, तेने
पकडतां आवडे छे पण छोडतां नथी आवडतुं; तेम अज्ञानभावरूप मगरमच्छनो एवो स्वभाव छे के
ते जीवने बांधे छे पण छोडतो नथी. भवथी छूटवानो उपाय शुं? के भवभयने भेदनारा एवा
भगवान सर्वज्ञ परमात्माने ओळखीने तेमनी भक्ति करवी ते भवनो नाश करनार छे. एकला
रागरूप भक्तिनी आ वात नथी पण अंतरमां ज्ञानानंद स्वभाव तरफना झुकावरूप वीतरागभाव
सहितनी आ भक्ति छे, ने ते भक्तिनुं फळ मुक्ति छे.
आटली भूमिका पछी हवे आ ऋषभदेव भगवाननी स्तुति शरू थाय छे:–
जय ऋषभ नाभिनंदन त्रिभुवननिलयैक दीप तीर्थंकर।
जय सकलजीववत्सल निर्मलगुणरत्ननिधे नाथ।।१।।
श्रीमान् नाभिराजाना पुत्र, तथा उर्ध्वलोक–मध्यलोक अने अधोलोकरूपी जे घर तेना एक
दीपक, अने धर्मतीर्थनी प्रवृत्ति करनारा एवा हे ऋषभदेव भगवान! आप आ लोकमां सदा जयवंत
रहो. वळी समस्त जीवो उपर वात्सल्य धारण करनारा अने निर्मळगुणरूपी रत्नोना निधान एवा हे
नाथ! आप आ लोकमां सदाय जयवंत रहो.
प्रवचनसारना मंगलाचरणमां पंचपरमेष्ठी भगवंतोने नमस्कार कर्या छे. त्यां नमस्कार करनार
पोते केवा छे? अने जेमने नमस्कार कर्या छे तेमनुं स्वरूप केवुं छे?–ते बंनेनी ओळखाण सहित वंदन
कर्या छे. “आ स्वसंवेदनप्रत्यक्ष दर्शनज्ञानसामान्यस्वरूप हुं...श्री वर्धमानदेवने प्रणमुं छुं.” जुओ, आमां
नमस्कार करनारे पोते स्वसंवेदनप्रत्यक्षथी पोताना स्वभावनो निर्णय कर्यो छे. एटले के, सर्वज्ञभगवान
जेवा पोताना स्वभावना निर्णयपूर्वक ज सर्वज्ञभगवाननी खरी स्तुति–भक्ति थाय छे.
जिनमंदिर बंधावीने अंदर जिनप्रतिमाने बेसाडवा ते भगवाननो स्थापनानिक्षेप छे; परंतु
जेमनी स्थापना करवामां आवे छे तेमनुं मूळ स्वरूप शुं छे, भावनिक्षेप शुं छे, तेनी ओळखाण वगर
भगवान प्रत्येनी साची भक्ति उल्लसे नहीं.
स्तुतिकार कहे छे के हे नाथ! आप सर्वज्ञता प्रगट करीने त्रणलोकना दीपक थया छो...मारामां
पण एवी शक्ति छे–तेने प्रतीतमां लईने हुं आपनी भक्ति करुं छुं. मारा आत्मानो स्वभाव पण त्रण
लोकनो प्रकाशक छे. दरेक आत्मा ज्ञानस्वभावी दीवो छे. आपे ते ज्ञानशक्ति पूरी व्यक्त करी छे, अमे
ते शक्तिने प्रतीतमां लीधी छे.
“ हे ऋषभदेव! आप नाभिराजाना नंदन छो...आपनो जय हो” एम कहीने भगवानना
कुळनी ओळखाण आपी.
“हे नाभिनंदन! आप त्रिलोक प्रकाशक दीपक छो. आपनो जय हो”–एम कहीने भगवानना
गुणनी ओळखाणपूर्वक तेनी स्तुति करी.
हे प्रभो! रत्नत्रयरूप जे धर्मतीर्थ, तेनी आप प्रवृत्ति करनारा छो, एटले आप तीर्थंकर छो.
आपनो दिव्य उपदेश जगतथी भिन्न चिदानंद मूर्ति ज्ञातानुं भान करावीने आत्माने संसारथी तारे छे,
तेथी आप तीर्थंकर छो.
स्तुतिकार प्रमोदथी कहे छे के अहा! सर्वज्ञनाथ! आप अमारा उपर वात्सलता धारण करनार
छो...अमारा उपर आपनुं वात्सल्य छे. अमारा ज्ञानमां अमे आपनी सर्वज्ञताने लीधे त्यां अमारा
उपर आपनुं वात्सल्य थयुं.
हे पूर्णपदने पामेला सर्वज्ञ परमात्मा ऋषभनाथ! आप जगतमां सदा जयवंत रहो...साध्यने
सदा जयवंत कह्युं, तेमां तेने अनुमोदनारा एवा साधकभावनो पण जय थाओ एटले के अल्पकाळमां
अमने पूर्ण साध्यनी प्राप्ति थाओ,–एम पण भेगुं ज आवी गयुं. पूर्ण ज्ञानानंदस्वरूप साध्यनो जय
हो एटले तेमां बाधक एवा रागनो अमारामांथी क्षय हो ने पूर्ण साध्य प्रगट थाओ. साध्य शुं,
साधकभाव शुं, साध्य कयांथी प्रगटे