Atmadharma magazine - Ank 203
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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भाद्रपद : २४८६ : २१ :
छे, बाधक कोण छे–एना भान सहितनी आ भक्ति छे. साधकजीव साध्यनी भक्ति वडे वच्चेना बाधक
भावने तोडतो जाय छे.
हे प्रभो! आप सकल जीवो प्रत्ये वात्सल्य करनारा छो. आ वात्सल्यमां कांई रागनी वात
नथी. जेम गायने वाछरडां प्रत्ये वात्सल्य होय छे तेम धर्मीसमकितीने साधर्मी प्रत्ये के देव–गुरु प्रत्ये
परम प्रीतिरूप वात्सल्य होय छे–एम जे वात्सल्यअंगनुं वर्णन छे तेमां शुभराग छे, तेवुं रागरूप
वात्सल्य भगवानने नथी. भगवानने वीतरागभावरूप वात्सल्य छे. समकितीने देव–गुरु प्रत्ये अने
साधर्मी प्रत्ये प्रेमरूप वात्सल्य होय छे ने अंतरमां चिदानंद स्वभावनी परम प्रीतिरूप निर्विकल्प
वात्सल्य होय छे.
अहीं भगवाननी भक्ति करतां प्रमोदथी साधक कहे छे के अहा! नाथ! आपने मारा उपर
वात्सल्य छे, मारा उपर आपने एवुं वात्सल्य छे के आप मारी मुक्तिने आपना ज्ञानमां देखी रह्या
छो. मारा उपर वात्सल्य छे एटले हुं तो कहुं छुं के हे नाथ! आखा जगत उपर आपनुं वात्सल्य छे.
पोताने अंतरमां भगवान प्रत्ये प्रमोद उल्लस्यो छे, तेथी भगवानमां तेनो आरोप करीने कहे छे के हे
नाथ! आपने अमारा उपर वात्सल्य छे. हे प्रभो! अमे आपनां पुत्र छीए...
वाह, जुओ आ भक्ति!!
हे नाथ! आप ज्ञाताभावे सकल जीवो उपर वात्सल्य धारण करनारा छो...अने अमारो
स्वभाव पण आपनी जेम जगतनो ज्ञाताद्रष्टा साक्षी छे. सर्वज्ञ तो जगतना साक्षी–ज्ञाताद्रष्टा छे,
तेमने कोई उपर द्वेष के राग नथी, नमे तेना उपर राग नथी, ने न नमे तेना उपर द्वेष नथी.–एक
सरखी रीते आखा जगतने जाणी रह्या छे, तेथी भगवाने आखा जगत प्रत्ये साक्षीभावरूप वत्सलता
छे. आ रीते भगवाननी स्तुति करीने ज्ञायकस्वभावनी ज भावना भावे छे.
वळी कहे छे के हे भगवान! आप निर्मळ गुणरूपी रत्नोना निधान छो. आपने ओळखतां
अमने अनंतगुणनो निधान आत्मा देखाणो; एटले आपना प्रसादथी ज अमने निजनिधाननी प्राप्ति
थई छे. अनंतगुणोना निधान आपे खुल्ला कर्या छे, आवा निर्मळगुणोना निधान हे ऋषभनाथ
परमात्मा आपनो ! जय हो.
हे प्रभो! आप अमारा ‘नाथ’ छो; अमने मळेली सम्यग्दर्शनादि संपदाना आप रक्षक छो
अने नहि मळेली एवी केवळज्ञानादि संपदाना आप दातार छो,–ए रीते आप अमारा नाथ छो. हे
नाथ! आ जगतमां आप सदा जयवंत रहो; अमारा हृदयमां आप बिराजो छो. अमारा हृदयमांथी
आप कदी खसशो नहीं.
धर्मात्मा साधकने स्वभावना आश्रये जेटली सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयनी शुद्धि प्रगटी छे ते तो
परमार्थ स्तुति छे; ने सर्वज्ञ प्रत्ये बहुमाननी वृत्ति ऊठे ते व्यवहार स्तुति छे. केवळज्ञाननी निश्चय
स्तुतिनुं स्वरूप समजावतां समयसारनी ३१मी गाथामां पण ए ज वात करी छे के रागथी अधिक
थईने एटले के तेनाथी जुदो पडीने ज्ञायक स्वभाव तरफ जे झूकयो तेणे सर्वज्ञनी निश्चयस्तुति करी.
आ सिवाय जे रागथी लाभ माने छे ते सर्वज्ञनो भक्त नथी पण सर्वज्ञनो वेरी छे, केमके तेणे
ज्ञानस्वभाव करतां रागने अधिक बनाव्यो ने ज्ञानस्वभावने हीणो बनाव्यो. सर्वज्ञनी स्तुति तो
ज्ञानस्वभावना बहुमानथी थाय, के रागना बहुमानथी? रागनुं बहुमान करनार सर्वज्ञनो अनादर
करनार छे. अहीं तो चिदानंद स्वभाव तरफ झुकेलो जीव भगवाननी केवी भक्ति करे छे तेनुं आ
वर्णन छे भावपूर्वकनी आ भक्ति छे.