
भावने तोडतो जाय छे.
परम प्रीतिरूप वात्सल्य होय छे–एम जे वात्सल्यअंगनुं वर्णन छे तेमां शुभराग छे, तेवुं रागरूप
वात्सल्य भगवानने नथी. भगवानने वीतरागभावरूप वात्सल्य छे. समकितीने देव–गुरु प्रत्ये अने
साधर्मी प्रत्ये प्रेमरूप वात्सल्य होय छे ने अंतरमां चिदानंद स्वभावनी परम प्रीतिरूप निर्विकल्प
वात्सल्य होय छे.
छो. मारा उपर वात्सल्य छे एटले हुं तो कहुं छुं के हे नाथ! आखा जगत उपर आपनुं वात्सल्य छे.
पोताने अंतरमां भगवान प्रत्ये प्रमोद उल्लस्यो छे, तेथी भगवानमां तेनो आरोप करीने कहे छे के हे
नाथ! आपने अमारा उपर वात्सल्य छे. हे प्रभो! अमे आपनां पुत्र छीए...
हे नाथ! आप ज्ञाताभावे सकल जीवो उपर वात्सल्य धारण करनारा छो...अने अमारो
तेमने कोई उपर द्वेष के राग नथी, नमे तेना उपर राग नथी, ने न नमे तेना उपर द्वेष नथी.–एक
सरखी रीते आखा जगतने जाणी रह्या छे, तेथी भगवाने आखा जगत प्रत्ये साक्षीभावरूप वत्सलता
छे. आ रीते भगवाननी स्तुति करीने ज्ञायकस्वभावनी ज भावना भावे छे.
थई छे. अनंतगुणोना निधान आपे खुल्ला कर्या छे, आवा निर्मळगुणोना निधान हे ऋषभनाथ
परमात्मा आपनो ! जय हो.
नाथ! आ जगतमां आप सदा जयवंत रहो; अमारा हृदयमां आप बिराजो छो. अमारा हृदयमांथी
आप कदी खसशो नहीं.
स्तुतिनुं स्वरूप समजावतां समयसारनी ३१मी गाथामां पण ए ज वात करी छे के रागथी अधिक
थईने एटले के तेनाथी जुदो पडीने ज्ञायक स्वभाव तरफ जे झूकयो तेणे सर्वज्ञनी निश्चयस्तुति करी.
आ सिवाय जे रागथी लाभ माने छे ते सर्वज्ञनो भक्त नथी पण सर्वज्ञनो वेरी छे, केमके तेणे
ज्ञानस्वभाव करतां रागने अधिक बनाव्यो ने ज्ञानस्वभावने हीणो बनाव्यो. सर्वज्ञनी स्तुति तो
ज्ञानस्वभावना बहुमानथी थाय, के रागना बहुमानथी? रागनुं बहुमान करनार सर्वज्ञनो अनादर
करनार छे. अहीं तो चिदानंद स्वभाव तरफ झुकेलो जीव भगवाननी केवी भक्ति करे छे तेनुं आ
वर्णन छे भावपूर्वकनी आ भक्ति छे.