आसो: २४८६ : प :
(३) आचार्य परमेष्ठीनुं स्वरूप
परिपूर्ण पंचाचारमां, वळी धीर गुणगंभीर छे,
पंचेन्द्रिगजना दर्प दलने दक्ष श्री आचार्य छे. ७३
केवा छे आचार्य–परमेष्ठी? सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान वगेरे पांच आचारोथी परिपूर्ण छे; पांच
ईन्द्रियोरूपी जे हाथी तेना मदनुं दलन करवामां दक्ष छे–कुशळ छे, धीर छे अने गुणोथी गंभीर छे,–
अगाध गुणोना दरिया छे.–आवुं आचार्यपद परम ईष्ट छे; अहा, केवळज्ञान लेवानी तैयारीमां वर्ततुं
आवुं परम ईष्ट आचार्यपद ते बहुमान योग्य छे, वंदनीय छे. अंतरमां मिथ्यात्वादि परिग्रहरहित अने
बहारमां वस्त्रादि परिग्रह रहित, एवा रत्नत्रय संपन्न मुनिवरो शुद्धोपयोगना बळथी केवळज्ञानने
साधी रह्या छे–वीतरागमार्गमां दरेक मुनिनी आवी दशा होय छे; ते उपरांत विशेष योग्यताथी जेओ
अन्य मुनिओने दीक्षा–शिक्षा वगेरेना देनार छे, एवा जैन–शासनना धूरंधर आचार्यो होय छे.
ते आचार्य भगवंतो ज्ञानादि पंचाचारथी परिपूर्ण होय छे. अहीं ‘ज्ञानाचारथी परिपूर्ण’ एम
कह्युं तेथी केवळज्ञान न समजवुं, परंतु सम्यग्ज्ञानना विनय वगेरे आठ आचारो छे ते समजवा. काळ,
विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्मव, अर्थ, व्यंजन अने तदुभयसंपन्न–ए आठ ज्ञानाचारना पालनमां
कुशळ छे तेथी तेओ ज्ञानाचारथी परिपूर्ण छे.
ए ज रीते सम्यग्दर्शनना आठ आचार छे; निशंकता, निःकांक्षपणुं, निर्विचिकित्सा, निर्मूढता,
उपगुहन–उपबृंहण, स्थितिकरण, वात्सल्य अने प्रभावना.
पंचमहाव्रत, ऋणगुप्ति अने पांच समिति ए चारित्रना आचार छे.
अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति, परिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त, शय्यासन, कायकलेश,
प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान अने व्युत्सर्ग–ए प्रमाणे बार प्रकारना तपाचार छे.
तथा, ज्ञान वगेरे आचारमां स्वशक्तिने गौपव्या वगर प्रवर्तन ते वीर्याचार छे.
श्री आचार्य महाराज आवा पांच आचारनुं परिपूर्ण पालन करनारा छे. हजी जेने श्रद्धा–
ज्ञाननुं ठेकाणुं न होय, वैराग्यनुं ठेकाणुं न होय, मुनिदशाना मूळगुणोनुं ठेकाणुं न होय तेने आचार्यपद
होतुं नथी. छतां तेवाने जे आचार्य माने ते कुगुरुने माननार छे. अहा! आचार्यपद तो तीर्थंकरनुं
पाडोशी पद छे, केवळज्ञान लेवानी तैयारीमां तेओ झूली रह्या छे.
वळी केवा छे आचार्य परमेष्ठी?
अतीन्द्रिय चिदानंद स्वभावना अवलंबन वडे पांच ईन्द्रियोना मदना चुरेचूरा करी नांख्या छे,
पांचे ईंद्रियो तरफथी संकोचाईने तेमनी परिणति चैतन्य स्वभावमां ढळी गई छे. पहेलां अज्ञानथी के
अस्थिरताथी ईंद्रियविषयो तरफ परिणति जती त्यारे ईंद्रियो मदांध हती. परंतु विषय कषाय रहित
थईने चिदानंदस्वरूपमां ठरतां ईंद्रियविषयो तरफ वलण ज न रह्युं एटले ईंद्रियो रूपी मदोन्मत्त
हाथीना मदना चुरा थई गया. आ रीते पंचेन्द्रियरूपी गजना मदने चूरी नांखवामां आचार्यपरमेष्ठी
समर्थ छे. अतीन्द्रिय आनंद परिणति ठरी त्यां ईंद्रियो जीताई गई.
वळी, अनेक प्रकारना घोर उपसर्ग आवे तेना पर विजय प्राप्त करता होवाथी, एटले के घोर
उपसर्ग वखते पण निज स्वरूपथी डगता नहि होवाथी, आचार्य भगवंतो धीर अने गुणगंभीर छे.
चैतन्यने साधतां साधतां वच्चे अनेक प्रकारनी ऋद्धिओ सहेजे प्रगटी होय, चक्रवर्तीना सैन्यने क्षणमां
हरावी दे एवुं सामर्थ्य प्रगट्युं होय, परंतु चैतन्यना परमानंदना अनुभवनी धूनमां पडेला संतोने ते
ऋद्धि वापरवा उपर लक्ष नथी, घोर प्रतिकूळता आवी पडे तोपण ऋद्धिनो उपयोग करता नथी–एवा
धीर अने गंभीर छे.
साधारण प्राणीओने जराक ऋद्धि मळे त्यां ते जीरवी न शके अने जराक प्रतिकूळता आवी पडे
त्यां तो धैर्यथी च्यूत थई जाय....पण चैतन्यने साधनारा संतो तो महा