: ४ : आत्मधर्म: २०४
पंच परमेष्ठी
प्रत्ये बहुमान
(श्री नियमसार गा. ७१ थी ७प उपरना प्रवचनोमांथी: अंक २०२ थी चालु)
धर्मात्माने पोताना चिदानंदस्वरूपना आदरपूर्वक
भगवान पंचपरमेष्ठी प्रत्ये बहुमान होय छे; केमके
आत्मानी पूर्ण शुद्धता ते धर्मात्माने परम ईष्ट छे, तेथी
एवा परम ईष्ट पदने पामेला के तेने साधनारा एवा
जीवो प्रत्ये पण धर्मीने बहुमान आवे छे....अहा! हुं जे
पद प्राप्त करवा मागुं छुं–जे मारुं परम ईष्ट पद छे तेने
आ अरिहंत अने सिद्धभगवंतो पामी चूकया छे, ने आ
आचार्य–उपाध्याय तथा मुनिभगवंतो ते पदने साधी
रह्या छे.–एम पंचपरमेष्ठी प्रत्ये परम भक्ति धर्मात्माने
वर्तती होय छे. साधकने पोतानो आत्मा स्वानुभवथी
कांईक प्रत्यक्ष छे अने कांईक परोक्ष छे. निश्चय
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां तो पोताना परम ईष्ट
एवा चैतन्यस्वभावने ज नमे छे ने तेनो ज आदर करे
छे; तेने व्यवहारसंबंधी राग छे तेमां भगवान
अरिहंतदेव वगेरे पंच परमेष्ठीनुं बहुमान– विनय होय
छे. अहीं नियमसार गाथा ७१ थी ७पमां ते पंच
परमेष्ठीनुं स्वरूप श्री कुंदकुंदाचार्यदेव वर्णवे छे,–तेओ
पोते त्रीजा परमेष्ठी पदमां वर्ती रह्या छे ने पंच
परमेष्ठीना बहुमानपूर्वक तेनुं स्वरूप वर्णवे छे.
पंचपरमेष्ठीमांथी पहेला अरिहंतपरमेष्ठीनुं अने बीजा
सिद्धपरमेष्ठीनुं स्वरूप ‘आत्मधर्म’ अंक २०२ मां आवी
गयुं छे; बाकीना त्रण परमेष्ठीनुं–आचार्य, उपाध्याय ने
साधु–नुं स्वरूप अहीं आपवामां आव्युं छे.