: ६ : आत्मधर्म: २०४
धीर अने गंभीर होय छे. गमे तेवी ऋद्धि प्रगटो परंतु मारी चैतन्य ऋद्धि पामे तेनी शुं महत्ता छे!
अने गमे तेवी प्रतिकूळताना गंज आवो परंतु मारा चैतन्यमां प्रतिकूळता करवानी कोईनी ताकात
नथी;–एम जाणता धर्मात्मा चैतन्यना अवलंबने घोर उपसर्गने पण जीती ल्ये छे. आ रीते तेओ
गुणगंभीर अने धीर छे.
श्री वादिराजसूरि कहे छे के अहा, आवा गुणगंभीर आचार्योने भक्तिक्रियामां कुशळ एवा अमे
भवदुःखने भेदवा माटे पूजीए छीए. जुओ तो खरा! आचार्यनिदशामां झुलता संत कहे छे के अमे
भक्तिक्रियामां कुशळ छीए....रत्नत्रयना धारक आचार्य भगवंतो प्रत्ये अमने भक्तिनो प्रमोद उल्लसी
जाय छे. रत्नत्रयधारक संतो प्रत्ये के भगवान प्रत्ये ओळखाणपूर्वक जेवी भक्ति धर्मात्माने ऊछळशे
तेवी भक्ति अज्ञानीने नहि आवे, एटले खरेखर रत्नत्रयने ओळखनारा धर्मात्मा जीवो ज
भक्तिक्रियामां कुशळ छे. जेने रत्नत्रयनी के मुनिदशा वगेरेनी खरी ओळखाण ज नथी तेने तेना
प्रत्येनी भक्तिमां कुशळता क््यांथी होय?–न ज होय; एटले जेणे सम्यग्दर्शनादिनुं साचुं स्वरूप जाण्युं
नथी ते भक्ति क्रियामां कुशळ नथी पण ठोठ छे; तेनी भक्ति एकली रागरूप छे, ज्यारे धर्मात्मानी
भक्ति तो वीतरागताना अंश सहित छे.
अहीं कहे छे के भक्तिक्रियामां कुशळ एवा अमे ते आचार्योने पूजीए छीए.–शा माटे? के
भवदुःखराशिने भेदवा माटे–शुं एकली रागरूपभक्तिथी भवराशि भेदाय? ना; भवनुं भेदन तो
वीतरागताथी ज थाय, ने वीतरागता तो स्वसन्मुखताथी ज थाय.–माटे स्वसन्मुखता सहितनी भक्ति
जेने वर्ते छे ते ज भक्तिक्रियामां कुशळ छे. एकली परसन्मुखताथी जे भवनुं भेदन करवा मांगे छे ते
भक्ति क्रियामां कुशळ नथी पण ठोठ छे.
आचार्य भगवंतो अकिंचनताना स्वामी छे. चैतन्यस्वभाव सिवाय बीजुं कांई पण मारुं नथी–
एवी निर्मोह परिणतिनुं नाम ‘अकिंचन’ छे, मुनिवरो एवी अकिंचन परिणतिना स्वामी छे एटले के
एवी निर्मोह–वीतरागी पर्यायरूपे तेओ परिणम्या छे, अने कषायोनो नाश करी नांख्यो छे.
हवे एक सरस वात करे छे: आचार्यो परिणमता ज्ञानना बळवडे महा पंचास्तिकायनी स्थितिने
समजावे छे.–जुओ, शुं कहे छे? ‘परिणमता ज्ञानना बळवडे’ एटले के जीवादिनुं ज्ञान तेमना आत्मामां
परिणमी गयुं छे, एकला शास्त्रज्ञानना बळथी देशना नथी करता, पण पंचास्तिकायना ज्ञानरूपे पोते
परिणमीने, ते परिणमता ज्ञानना बळवडे पंचास्तिकायनुं स्वरूप समजावे छे. आ रीते आचार्योनी
देशना पाछळ परिणमता ज्ञाननुं बळ छे.–एटले के, देशनालब्धिमां ज्ञानरूपे परिणमतो आत्मा ज
निमित्त होय, अज्ञानी निमित्त न होय,–ए वात पण आमां आवी जाय छे.
जुओ, आ आचार्यदशा!! आचार्य सिवायना बीजा मुनिओने पण आ वात लागु पडे छे.
ज्यां ‘परिणमता ज्ञाननुं बळ’ न होय ने रागनुं ज बळ होय (–रागनी ज अधिकता भासती होय)
–त्यां मुनिदशा के आचार्यपद होतुं नथी. जेम अग्निना कणेकणमां उष्णता परिणमी थई छे तेम
मुनिवरो रोमेरोममां जीवादितत्त्वोनुं ज्ञान परिणमी गयुं छे, तेमनी परिणतिनुं ज्ञानबळ एटलुं छे के
जाणे हमणां ज केवळज्ञान लेशे? एमना हाडोहाडमां वीतरागी उपशमभाव फेलाई गयो छे..एना
देदार जुओ तो वैराग्यनी मूर्ति!! एना अंसख्यप्रदेशमां श्रध्धा–ज्ञान–चारित्र वगेरे गुणोना दरिया
उछळे छे.....अतीन्द्रिय आनंदना अनुभवना ओडकार ल्ये छे, चैतन्यस्वरूपमां जोडाण करवा माटे
जेमनी बुद्धि स्थिर छे, स्थिरबुद्धिथी चैतन्यने अवलोकवामां जेओ निपूण छे...आवी परिणतिवाळा
गुणना दरिया आचार्य भगवंतोने अमे भक्तिपूर्वक पूजीए छीए....तेमना चरणकमळमां अमारा
नमस्कार हो.
अहीं आचार्य परमेष्ठीनी स्तुतिमां पद्मप्रभ मुनिराज कहे छे के: आ श्री चंदकीर्ति मुनिनुं
निरूपम चैतन्य परिणमन वंद्य छे.–केवुं छे ते चैतन्य परिणमन? सकळ ईंद्रियोना अवलंबन विनानुं
छे, अनाकुळ छे, स्वहितमां लीन छे, शुद्ध छे, मोक्षना कारणरूप शुक्लध्याननुं ते कारण छे, शांतिनुं धाम
छे, संयमनुं स्थान छे. ज्यां आवुं चैतन्य