आसोः२४८६ : ७ :
न्यपरिणमन होय त्यां ज आचार्यपद होई शके. आवा चैतन्यपरिणमनवाळा आचार्य परमेष्ठीने
नमस्कार हो. अहीं एक चंद्रकीर्ति आचार्यनुं नाम लीधु तेमां आवी चैतन्यदशावाळा बधा आचार्योने
नमस्कार आवी जाय छे–एम समजी लेवुं; जेम एक सिद्धने नमस्कार करतां सर्वे सिद्धोने नमस्कार
आवी जाय छे, एक सर्वज्ञने नमस्कार करतां सर्वे सर्वज्ञने नमस्कार आवी जाय छे, तेम आचार्यने
नमस्कार करतां सर्वे आचार्योने नमस्कार आवी जाय छे,–केमके गुणद्रष्टिए तेमनामां एकता छे, एटले
के भेद नथी. एक आचार्यमां बधा आवी जाय छे,–एटले साचा ने खोटा बधा भेगा आवी जाय छे–
एम न समजवुं, परंतु एक आचार्य जेवा ज गुणना धारक बीजा आचार्यो समजवा. आ ७३मी
गाथामां वर्णव्या एवा गुणो जेमनामां होय तेमने ज जैनशासनमां आचार्य परमेष्ठी तरीके
स्वीकारवामां आवे छे, अने “नमो आइरियाणं” मां तेवा ज आचार्योनो समावेश थाय छे. जेओ
एनाथी विरुद्ध होय, ऊंधी श्रद्धावाळा होय, वस्त्रादि परिग्रहवाळा होय एवा जीवोने, भले हजारो
माणसो भेगा थईने आचार्यपदवी आपे तो पण, जैनशासनमां तेमने आचार्य परमेष्ठी तरीके
स्वीकारवामां आवता नथी, ने नमोक्कारमंत्रना त्रीजा पदमां के कोईपण पदमां तेमनो समावेश थतो
नथी. आ वात उपाध्याय अने साधु परमेष्ठीमां पण समजी लेवी.
कोई एम कहे छे के “नमो लोएसव्व साहूणं” मां लोकमां रहेला बधाय साधुओने नमस्कार
कर्या छे एटले जैनना तेमज बीजा बधाय साधुनो तेमां समावेश करवो जोईए;–पण ए वात तद्न
जुठी छे. अरेरे, जैन नाम धरावनार लोकोने हजी नमस्कार मंत्रना खरा अर्थनी पण खबर नथी,
पंचपरमेष्ठीनी शी दशा छे–तेनी पण ओळखाण नथी. जेने हजी रत्नत्रयधर्मनी गंघ पण नथी मोक्षनुं
साधकपणुं रंचमात्र पण प्रगटयुं नथी–एने ते साधु दशा केवी? अने एने पंचपरमेष्ठीमां नमस्कार
केवा? हजी तो सम्यग्दर्शन पण कोई अलौकिक अचिंत्य वस्तु छे, ते पण जैन सिवाय बीजा मतमां
होई न शके–तो पछी सम्यग्दर्शन करतांय घणी ऊंची एवी साधुदशा परम ईष्ट पद–ते तो बीजे होय ज
क््यांथी? अने आचार्य ते तो साधुओना पण शिरोमणि छे.
“आ रीते आचार्यपरमेष्ठीनुं स्वरूप वर्णव्युं; ते आचार्य भगवंतोने अमारा नमस्कार हो.”
(४) उपाध्याय–परमेष्ठीनुं स्वरूप
अरिहंत, सिद्ध अने आचार्य ए त्रण परमेष्ठीनुं स्वरूप कहीने तेमनुं बहुमान कर्युं, हवे चोथा
उपाध्याय परमेष्ठीनुं स्वरूप कहे छे. जेमना प्रत्ये नमस्कार के बहुमान करवुं होय तेनुं स्वरूप ओळखवुं
जोईए केमके स्वरूपने जाण्या वगर तो खबर नथी पडती के हुं कोनुं बहुमान करुं छुं?–माटे, स्वरूपने
ओळखे तो ज खरुं बहुमान आवे. केवा छे उपाध्याय–परमेष्ठी? –
रत्नत्रये संयुक्त ने निःकांक्षभावथी युक्त छे,
जिनवरकथित अर्थोपदेशेशुर श्री उवझाय छे. ७४
उपाध्याय–परमेष्ठी रत्नत्रयथी संयुक्त छे, जिनवरदेवे कहेला पदार्थोना शूरवीर उपदेशक छे
अने निष्कांक्षभावथी सहित छे. टीकाकार मुनिराज कहे छे के, आवा उपाध्याय भगवंतोने हुं फरीफरीने
वंदुं छुं. आचार्य, उपाध्याय अने मुनि ए त्रणेय परमगुरु छे.
आचार्यने पंचाचारथी परिपूर्ण कह्या तेमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र आवी ज गया.
उपाध्यायने रत्नत्रय–संयुक्त कह्या तेमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र आव्या. अने
साधुने चतुर्विध आराधनामां रत कहेशे, तेमां पण सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र आवी गया.
आ रीते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते गुरुनुं मूळस्वरूप छे, अने सर्वज्ञता ते देवनुं (–अरिहंत
अने सिद्धनुं) मूळस्वरूप छे. सर्वज्ञता वगर अरिहंत के सिद्धपद नहि, अने रत्नत्रय वगर आचार्य,
उपाध्याय के साधुपद नहि. आम देव–गुरुना वास्तविक स्वरूपने ओळखे तो पोतामां पण भेदज्ञान
थाय ने देव–गुरुनुं अलौकिक बहुमान आवे. जो के देव–गुरुना बहुमाननो विकल्प ते पण राग छे,