Atmadharma magazine - Ank 204
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म: २०४
परंतु ओळखाण–पूर्वकनुं जेवुं परम बहुमान ज्ञानीने आवशे तेवुं अज्ञानीने नहीं आवे. एटले
पंचपरमेष्ठीनी भक्तिमां खरेखर कुशळता ज्ञानीने ज होय छे.
आ उपाध्याय–परमगुरुनुं वर्णन छे. अहा, उपाध्याय पद पण अलौकिक छे. साधारण संस्कृत–
प्राकृत वांचीने के शास्त्रो वांचीने उपाध्यायपणुं मानी बेसे ते कांई खरुं उपाध्याय–पद नथी, ते तो
उपाधि छे. रत्नत्रयने साधनारा मुनिओ पण जेमनी पासे शास्त्र भणे–एवुं उपाध्याय पद छे. ते
उपाध्याय सौथी पहेलां तो परम चिद्रूपनां श्रद्धान–ज्ञान ए आचरण रूप निश्चय–रत्नत्रयवाळा होय
छे. ते उपरांत भगवान जिनेन्द्रदेवे जेवा जीवादि पदार्थो कह्या छे तेना उपदेशमां तेओ शूरवीर छे,
यथार्थ तत्त्वथी विपरीत वातने युक्तिना बळथी, आगमना बळथी ने अनुभवना बळथी तेओ तोडी
नांखे छे. भवभ्रमणनो जेमने भय छे ने जिनेन्द्र मार्गना जेओ उपासक छे एवा उपाध्यायनो उपदेश
भगवाननी वाणी अनुसार ज होय छे–जाणे के जिनेन्द्र भगवान ज तेमना हृदयमां बेसीने बोलता
होय! जिनेन्द्र भगवाने कहेला तत्त्वोनुं स्वरूप शुं छे तेनी जेने ओळखाण न होय ते तेना उपदेशमां
शूरवीर क््यांथी होय? न ज होय. एटले के अज्ञानीनो उपदेश यथार्थ न होय, ज्ञानी ज भगवाने
कहेला तत्त्वना उपदेशमां कुशळ होय, अने तेमां पण उपाध्याय तो बधा पडखेथी उपदेशमां शूरवीर छे
जो के उपदेशनी वाणी तो जड छे, ते जड छे, ते कांई आत्मानुं कार्य नथी परंतु उपाध्यायने ते प्रकारना
ज्ञाननो विशेष क्षयोपशमभाव होय छे–तेम अहीं बताववुं छे.
वळी ते–उपाध्याय निष्कांक्षभावना सहित होय छे.–कई रीते? के समस्त परिग्रहना परित्याग–
स्वरूप जे निरंजन निज परमात्म तत्त्व तेनी भावनाथी उत्पन्न थता परम वितराग सुखामृतना
पानमां सन्मुख होवाथी ते उपाध्याय परमेष्ठी समस्त कांक्षाथी रहित छे. चैतन्यसुख पासे जगतना
कया सुखनी वांछा होय? परमात्मतत्त्वनी भावनाथी जेओ वीतरागी सुखने अनुभवी रह्या छे एवा
संतोने संसारना सुखोनी (विषयोनी) वांछा केम होय?–न ज होय.–ए रीते तेओ निष्कांक्ष छे,
जगतथी निस्पृह छे.
जेनो आत्मा रत्नत्रयमय छे, आत्मा पोते ज रत्नत्रयरूप परिणमी गयो छे, अने रत्नत्रयमय
होवाथी जेओ शुद्ध छे, मिथ्यात्वादि भावो अशुद्ध छे तेनो तेमने अभाव छे, वळी जेओ भव्य कमळना
सूर्य छे–जेमनो वीतरागी उपदेश झीलतां भव्य जीवोरूपी कमळ विकसी जाय छे, अने जेओ
वीतरागमार्गना उपदेशक छे, एवा जैन–उपाध्याय परमेष्ठीने फरी फरीने वंदन हो.
आ रीते उपाध्यायनुं स्वरूप कह्युं; हवे पांचमा परमेष्ठीनुं स्वरूप कहे छे.
(प) साधु परमेष्ठीनुं स्वरूप
निर्ग्रंथ छे, निर्मोह छे, व्यापारथी प्रविमुक्त छे, चउविध आराधन विषे नित्यानुरकत श्री
साधु छे. ७प. जैनमार्गमां साधुओ केवा होय छे?–के व्यापारथी विमुक्त होय छे,–मंदिर वगेरेनी
व्यवस्था करवी, पुस्तको छपाववानी के वेचवानी व्यवस्था करवी–एवा प्रकारनी प्रवृत्तिओनो व्यापार
मुनिओनो होतो नथी; तेमने तो एक चैतन्यनो व्यापार छे–चैतन्यमां ज उपयोगने वारंवार जोडे छे,
बीजा व्यापारथी तेओ रहित छे; अने चतुर्विध आराधनामां तेओ सदा रक्त छे,–सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्र अने तपमां तेओ पोतानो पुरुषार्थ जोडया ज करे छे; वळी तेओ निर्ग्रंथ छे–मिथ्यात्वादि
परिग्रहनी गांठ जेमने नथी, तेमज वस्त्रादि परिग्रह पण जेमने नथी; तथा तेओ निर्मोंह छे.–आवा
साधुओ होय छे.
भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेवे आ नियमसारनी ७१ थी ७प पांच गाथाओमां पचंपरमेष्ठीनुं
स्वरूप बताव्युं छे, तेमां–
(७१) अरिहंता एरिसा होंति (अरिहंतो आवा होय छे.)
(७२) सिध्धा एरिसा होंति (सिद्धो आवा होय छे)
(७३) आयरिया एरिसा होंति (आचार्यो आवा होय छे)