Atmadharma magazine - Ank 204
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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आसो : २४८६ : ९ :
(७४) उवज्झाया एरिसा होंति (उपाध्यायो आवा होय छे)
(७प) साहू एरिसा होंति (साधुओ आवा होय छे)
–ए रीते दरेक पदमां “एरिसा होंति” एम कहीने, जाणे के पांचे परमेष्ठी भगवंतो साक्षात्
सन्मुख ज–नजर सामे प्रत्यक्ष वर्तता होय–एवुं वर्णन कर्युं छे.
“जुओ, आ रह्या अर्हंतो, आ रह्या सिद्धो, आ रह्या आचार्यो, आ रह्या उपाध्यायो, ने आ
रह्या साधुओ!” आ रीते पंच परमेष्ठी भगवंतो एरिसा होंति–एम जाणे आचार्यदेव साक्षात् देखाडी
रह्या छे. पोते विदेहक्षेत्रे जईने बधुं साक्षात् जोई आव्या छे एटले जाणे बधुं नजरे तरवरतुं होय–एवुं
अद्भुत कथन आचार्यभगवाने कर्युं छे.
नमो लोए सव्वसाहूणं” एटले के लोकना सर्व साधुओने नमस्कार हो.–आ नमस्कारमां केवा
साधु आवे? जगतना बधाय साधुओ आवे, ए वात खरी, परंतु ते साधु होवा जोईए ने! कुसाधु तो
तेमां न ज आवे.–जो कुसाधुने साधु मानीने नमस्कार करे तो तो मिथ्यात्व छे. ‘नमो लोए सव्व
साहूणं’ मां आवनारा साधु केवा होय ते अहीं समजाव्युं छे. निर्ग्रंथ होय, निर्मोह होय, संसारसंबंधी
समस्त व्यापारथी रहित होय अने चार आराधनामां सदाय तत्पर होय–ते साधु छे, ते मोक्षना साधक
छे. वस्त्रादि सहित पोताने साधुपणुं माने ते तो संसारना साधक छे, ते मोक्षना साधक नथी एटले
साधु नथी. भले द्रव्यलिंग (दिगंबरदशा, पंचमहाव्रतादि शुभराग) धारण करेल होय, परंतु जो
रागमां धर्म मानीने अटक्यो ने रागथी पर एवा चैतन्यने न साध्यो तो ते पण संसारतत्त्व ज छे–
एम प्रवचनसारमां आचार्यदेवे कह्युं छे. ‘साधु’ तो तेने कहेवाय जे मोक्षने साधे. सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान ने सम्यक्चारित्र ए त्रणने ‘साधु’ कहेवाय छे केम के ते मोक्षना साधक छे. अने जेओ
एवा साधु–भावने (सम्यग्दर्शनादिने) धारण करे छे तेओ ‘साधु’ छे, तेओ सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्रवडे मोक्षने साधी रह्या छे. सम्यग्दर्शन पण मोक्षनुं साधक होवाथी समकितीने पण ते
साधकअंशनी अपेक्षाए तेटलुं साधुपणुं कहेवाय, परंतु पंचपरमेष्ठीपदना साधुपणामां ते न आवे.
परमेष्ठीपद तो ज्यां सम्यग्दर्शन–ज्ञान उपरांत चारित्रदशा प्रगटी होय त्यां ज होय छे, ने त्यांज
रत्नत्रयस्वरूप मोक्षमार्ग छे. एकला आत्मज्ञानथी के सम्यग्दर्शनथी मुनिपणुं नथी, परंतु आत्मज्ञान
अने सम्यग्दर्शन उपरांत स्वरूपमां स्थिरतारूप चारित्रदशा होय त्यारे ज मुनिपणुं होय छे. एटलुं खरूं
के आत्मज्ञान होय तो ज मुनिपणुं होई शके. आत्मज्ञान वगर तो मुनिपणुं होय ज नहि–ए नियम
छे. आत्मज्ञान होय छतां मुनिपणुं न होय, अगर होय पण खरुं,–एटले तेमां कोई नियम नथी.
नमो लोए सव्व साहुणं’ मां आ बधुं आवी जाय छे पण मोटा भागना लोको तो वस्तुस्वरूप
समज्या वगर मात्र पाठ गोखी जाय छे. एक साधुना स्वरूपने ओळखे तोपण भेदज्ञान थई जाय तेवुं
छे, पंच परमेष्ठीमांथी कोईना स्वरूपने ओळखे–अरे! सम्यग्द्रष्टिना स्वरूपने ओळखे तोय जीवने
अंतरमां पोताना वास्तविक स्वभावनुं लक्ष थई जाय.....ने पोते पण तेमनी जातमां भळी जाय.
‘सजात’ थया विना, एटले के तेमनी ज जातनो अंश पोतामां प्रगट कर्या विना, अरिहंत वगेरेना
स्वरूपनो खरो निर्णय थई शकतो नथी. आहा! आमां पण निश्चय व्यवहारनी अद्भुत संधि छे.
जैनशासननुं रहस्य अंतर्मुख–स्वसन्मुख थवाथी ज समजाय छे.....मोक्षमार्गनी पण ए ज रीते छे.
जेओ अंर्तस्वभावनी सन्मुख थईने चैतन्यनी साधनामां रत छे तेओ ज साधु छे. जेओ चैतन्यमां
रत न होय ने रागमां के परद्रव्यना परिग्रहमां रत होय तेने साधुपणुं क््यांथी होय? परद्रव्यमां ने
परभावमां लीन रहेनार जीव स्वपदने क््यांथी साधे? जैनशासनमां बधाय साधुओ स्वपदने
साधवामां तत्पर होय छे; तेमां कोई साधु सातमे गुणस्थाने निर्विकल्प आनंदमां बिराजता होय, ने
कोई साधु छठ्ठा गुणस्थाने सर्विकल्पदशामां वर्तता