Atmadharma magazine - Ank 204
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म: २०४
होय, एटले कोई साधु शुद्धोपयोगमां वर्तता होय ने कोई साधु शुभोपयोगमां पण वर्तता होय, एवा
प्रकारना भेद होय, परंतु कोई साधु वस्त्ररहित दिगंबर होय अने कोई साधु वस्त्रसहित पण होय–
एवा प्रकारना भेद तो जैनशासनना साधुओमां नथी. अंतरमां तेमज बाह्य निर्गंथदशा वगर कोई
जीव जैनशासनना ‘नमो लोए सव्व साहूणं’ पदमां आवी शके नहीं. साधुपणुं ए तो जैनशासननुं
परम–ईष्ट परमेष्ठी पद छे.
जैनशासनना साधु केवा होय? ए वात स्वयं साधुदशामां वर्ती रहेला कुंदकुंदाचार्य अने
पद्मप्रभमुनिराज समजावी रह्या छे. जैनशासनना साधुओ तो परम संयमी महापुरुषो होवाथी
त्रिकाळ निरंजन निरावरण परम पंचमभावनी भावनामां परिणमेला होय छे अने समस्त
बाह्यव्यापारथी विमुक्त होय छे. जुओ, आ महापुरुषनुं कार्य! सौथी श्रेष्ठ–महान एवो जे पोतानो
परम पंचमस्वभाव तेनी भावना ए ज महापुरुषोनुं कर्तव्य छे. ए सिवाय रागनी के बाह्यविषयोनी
भावना ए तो तूच्छजीवोनुं एटले के मिथ्याद्रष्टिओनुं कार्य छे. महापुरुष एवा मुनिवरो तो अंतरमां
चिदानंदस्वभावनी भावनामां परिणमी गया छे. वळी ते साधुओ ज्ञान–दर्शन–चारित्र अने चतुर्विध
आराधनामां सदा अनुरक्त छे; बाह्य–अभ्यंतर समस्त परिग्रह रहित होवाथी निर्ग्रंथ छे; अने
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रथी विरुद्ध एवा मिथ्यादर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप जे मोह तेनो अभाव होवाथी
मुनिओ निर्मोह छे. आवा निर्ग्रंथ–निर्मोह मुनिवरो मोक्षनी साधनामां ज तत्पर छे, जगतना स्त्री
आदि पदार्थोने अवलोकवानुं कुतूहल तेमने रह्युं नथी, तेओ तो वीतराग थईने अतीन्द्रिय आनंदरूप
एवी जे मुक्तिसुंदरी तेनी अनुपमता अवलोकवामां ज कुतूहलबुद्धिवाळा छे, एटले के मोक्ष सिवाय
बीजुं कांई तेमने प्रिय नथी, मोक्षने साधवा सिवाय बीजे क््यांय तेमनी बुध्धि भमती नथी. आवा
साधुओ अल्पकाळमां ज मोक्षसुखने साधे छे. तेमनुं बहुमान टीकाकार मुनिराज कहे छे, भववाळा
जीवोना भवसुखथी जे विमुख छे अने सर्वसंगना संबंधथी जे मुक्त छे, एवुं ते साधुनुं मन अमने
वंद्य छे. हे साधु! ते मनने शीघ्र निजात्मामां मग्न करो...समग्रपणे अंतरमां मग्न करीने शीघ्र
केवळज्ञान पामो. खरेखर तो पोते साधुपदमां वर्ते छे ने पोताना आत्माने संबोधीने कहे छे के अरे
आत्मा तें मुनिदशा तो प्रगट करी....हवे तारा उपयोगने शीघ्र आत्मस्वभावमां मग्न करीने तुं
केवळज्ञान प्रगट कर. तुं केवळज्ञाननो साधक थयो....हवे चैतन्यमां लीन थईने जलदी केवळज्ञानने
साध.
हे सिध्धपदना साधक साधु–परमेष्ठी! तारा चैतन्यपरिणमनने मारा नमस्कार हो.......
आ रीते बहुमानपूर्वक भगवान पंच–परमेष्ठीनुं वर्णन पूरुं थयुं.....ते परमेष्ठी भगवंतो
अमारुं कल्याण करो....तेमने नमस्कार हो.
नमो अरिहंताणं।
नमो सिद्धाणं।
नमो आइरियाणं।
नमो उवज्झायाणं।
नमो लोए सव्वसाहूणं।