Atmadharma magazine - Ank 204
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म: २०४
छे, ने केवा केवा निधान भर्या छे तेनी अज्ञानीओने खबर नथी. जे चैतन्यनिधानने लक्षमां लेतां ज
अनुकूळ सुखनो अनुभव थाय–एवां निधान पोतामां छे, तेनी प्रतीत करवी ए ज सम्यग्दर्शननी
पद्धति छे. चैतन्यनी एक ज्ञानशक्तिना गर्भमां सर्वज्ञतानी व्यक्ति थवानी ताकात छे.–ए ताकातनो
विश्वास कोण करे? जेने रागनी अधिकता भासे तेने चैतन्यनी ताकातनो विश्वास नथी. रागने तोडीने
सर्वज्ञताने पामे–एवी चैतन्यनी ताकात छे. ते ताकातथी भिन्न रहीने तेनी प्रतीत थई शकती नथी पण
तेनी सन्मुख थईने, तेमां तन्मय थईने तेनी सम्यक् प्रतीति थाय छे. ए ज सम्यग्दर्शन छे, ए ज
सुखनो अने सत्य जीवननो उपाय छे.
ईंद्रियोथी जे लाभ माने छे, जड इंद्रियोने ज्ञाननु्रं साधन माने छे, के ईंद्रियविषयोमां जे सुख
माने छे ते मूढ जीव जडने आधीन पोतानुं जीवन माने छे, जडथी भिन्न पोताना अतीन्द्रिय–
चैतन्यजीवनने ते जाणतो नथी, एटले ते तो जड जीवन जीवे छे. चिदानंद स्वभावनी सन्मुख थईने
ज्ञानीए ईंद्रियोनुं अवलंबन तोडी नाख्युं छे एटले जडजीवनने उडाडी दीधुं ने चैतन्यनुं आनंदमय
जीवन प्राप्त कर्युं छे.
दुनियाना जीवो सुखनी झंखना करे छे......कोई रीते सुख मळे?–क््यांयथी सुख मळे? एम
बधाय जीवो ईच्छे छे. आचार्यप्रभु कहे छे के हे जीवो! तमारा आत्मामां ज सुखशक्ति भरेली छे, तेनी
सन्मुख थवाथी तेमांथी ज सुख मळशे.....ए सिवाय बीजी कोई रीते जगतमां बीजे क््यांयथी सुख
मळी शके तेम नथी. सुख शुं आत्मामां नथी ने बहारथी आववानुं छे? ना; पोतानुं सुख बहारमां
शोधवुं पडे तो तो पराधीनता थई.....पराधीनतामां तो दुःख होय, सुख न होय. पोताना स्वभावमां
ज सुख छे, ने ते स्वभावमां सन्मुख थतां ज स्व–आधीनताथी सुख प्रगटे छे, ते सुखमां जगतना
बीजा कोई पदार्थनी अपेक्षा नथी, आत्माना स्वभावथी ज ते सुख स्वयंसिध्ध छे. जेम तेमां बहारना
पदार्थोनी अपेक्षा के मदद नथी तेम तेमां कोई वडे बाधा के विघ्न पण थई शकतुं नथी. ए रीते ते सुख
स्वाधीन छे.
आत्मा विशुद्ध–ज्ञानस्वरूप छे; ते परद्रव्योमांथी कांई लाभ ल्ये, के परने कांई लाभ आपे–एवुं
तेना स्वरूपमां नथी. एटले परमां कांई पण सुख छे ए मान्यता भ्रमभरेली छे; अने परतरफना
झूकावथी जे रागद्वेषनी वृत्तिओ थाय छे ते पण आकुळतामय छे, तेमां पण सुख नथी.–सुख छे क््यां?
भाई, अंतरतत्त्वना निधानमां ज तारो आनंद भर्यो छे.–तेमां सन्मुख थतां आत्मा पोते सुखरूपे
परिणमी जाय छे, पोते स्वयमेव छ कारकरूप थईने सुखपणे परिणमी जाय छे, बीजा कोईनी तेने
अपेक्षा नथी, भाई, अंतरमां डोकियुं करीने तारा आत्मानुं मंथन तो कर; तारो सुखस्वभाव अंतरमां
छे तेनुं शोधन तो कर. तेमां तने कोई अपूर्व सुख ने अपूर्व आनंद अनुभवाशे. आवो आनंदनो
अनुभव थाय तेने जिनेश्वरभगवान जैनधर्म कहे छे.
भगवान कहे छे: अरे जीव! अमे तने तारी किंमत करावीए छीए. तारी किंमत केटली बेहद छे
तेनी तने खबर नथी, पण तारामां एवुं बेहद अचिंत्य सामर्थ्य छे के एक क्षणमां आखाय विश्वने
ज्ञानमां ज्ञेयपणे पी जाय.....ने आखा जगतथी निरपेक्ष रहीने पोते पोताना परम आनंदने अनुभवे.
जे आनंदना एक कणिया पासे त्रण जगतनो वैभव पण तूच्छ भासे.–आवी तारा आत्मानी किंमत
एटले के महिमा छे. पण तुं तारी किंमत भूलीने, तने नमालो मानीने, रागथी ने देहनी क्रियाथी तारी
किंमत के महिमा माने छे, तारी ए मान्यता ज तने संसारमां रखडावे छे. अमे तने कहीए छीए के
सर्वज्ञतानी ने पूर्णानंदनी शक्ति तारामां भरी छे, अर्हंतोमां जेटली ताकात व्यक्त थई तेटली बधीय
ताकात तारामां पण भरी ज छे. अर्हंतो अने सिध्धो करतां तारा आत्मानी किंमत जराय ओछी नथी.
अर्हंतोमां अने आ आत्माना स्वभावमां जे किंचित् फेर माने ते मिथ्याद्रष्टि–आत्मघातकी छे. जेनी
किंमत होय तेटली बराबर आंके तो तेनुं बराबर ज्ञान अने बहुमान कर्युं कहेवाय. करोडपति माणसने
गरीब–हजार रूा. नी मुडीवाळो ज माने