Atmadharma magazine - Ank 204
(Year 17 - Vir Nirvana Samvat 2486, A.D. 1960)
(Devanagari transliteration).

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आसो: २४८६ : १३ :
तो तेणे खरेखर करोडपति ओळख्यो नथी, तेनुं बहुमान कर्युं नथी पण अपमान कर्युं छे. तेम
कैवल्यपति सर्वज्ञस्वभावी आनंदनिधानथी भरपूर आत्मा छे, तेने जे अल्पज्ञस्वरूप माने, रागी
माने, तेनुं सुख परमां माने, ते खरेखर आत्माने ओळखतो नथी, ते आत्मानुं बहुमान नथी करतो
पण अपमान करे छे. मोटा राजाने भीखारी माने तो तेमां राजानुं घोर अपमान छे ने तेनी शिक्षा
जेल छे, तेम महामहिमावंत चैतन्यराजाने परमांथी सुखनी भीख मांगनार मानवो तेमां चैतन्य
महाराजनुं घोर अपमान छे ने तेनी शिक्षा संसाररूपी जेल छे. भाई, तारे आ संसाररूपी जेलमांथी
छूटवुं होय तो तारा चैतन्यराजाने बराबर ओळखीने तेनुं बहुमान कर. संतो पोकारी–पोकारीने तने
तारी प्रभुता बतावे छे, तेने ओळख; तारी प्रभुतानी ओळखाणथी तुं प्रभु थईश.
जे जीव रागथी लाभ माने छे ते चैतन्य करतां रागने महत्ता आपे छे, एटले पोताना
चैतन्यनी प्रभुताने पाटु मारीने पामरताने सेवे छे, एटले पामरपणे परिभ्रमण करे छे. अहीं संतो
तेने करुणाथी समजावे छे के अरे जीव! तारुं चैतन्यतत्त्व स्वतंत्रपणे शोभी ऊठे एवी तारी प्रभुता
छे. अखंड शक्तिथी भरपूर तारी अखंड प्रभुता छे. तेमां ज तारुं समकित ने शांति छे; बीजे क््यांय
शोध्ये ते मळे तेम नथी. तारा सम्यकत्वनी, केवळज्ञाननी ने परमआनंदनी रचना स्वतंत्रपणे करे एवुं
तारुं प्रभुतानुं सामर्थ्य छे.–आवा प्रभुत्वने तुं जो.
“धर्मनुं मूळ सर्वज्ञ छे”–आत्मानो सर्वज्ञ स्वभाव छे, तेनी प्रतीत करीने निर्विकल्पधाराथी
केवळज्ञान प्रगट करीने जेओ सर्वज्ञ थया, तेमनी वाणीमां धर्मनुं स्वरूप उपदेश्युं–ए रीते भगवान
सर्वज्ञदेव धर्मना प्रणेता छे. जेने आवा सर्वज्ञनो निर्णय कर्यो नथी तेने धर्म थतो नथी. सर्वज्ञनो
निर्णय करनारने पोताना आत्मामां भरेली सर्वज्ञशक्तिनो अनुभव थई जाय छे.
निज आत्मामां सर्वज्ञ शक्तिनो आ काळे ने आ क्षेत्रे पण अनुभव थई शके छे. आ क्षेत्रे अने
आ काळे परिणमेला सर्वज्ञनो विरह छे, परंतु सर्वज्ञत्वशक्ति तो अत्यारे पण आत्मामां पडी ज छे.
अने आत्मानी सर्वज्ञशक्तिनी जे प्रतीत करे तेने व्यक्त सर्वज्ञ परमात्मानी प्रतीत पण थाय ज.
कोई नास्तिक एम कहे के ‘सर्वज्ञ नथी’ तो आचार्य तेने पूछे छे के हे भाई! सर्वज्ञ क््यां
नथी? आ काळे ने आ क्षेत्रे ज सर्वज्ञ नथी? के सर्व काळे ने सर्व क्षेत्रे सर्वज्ञ नथी?
जो तुं एम कहे के ‘आ काळे आ क्षेत्रे ज सर्वज्ञ नथी,’–तो तेना अर्थमां एम आवी ज गयुं के
आ सिवाय बीजा काळे ने बीजा क्षेत्रे सर्वज्ञ छे.
अने जो तुं एम कहे के सर्वकाळे अने सर्व क्षेत्रे सर्वज्ञनो अभाव छे–तो अमे तने पूछीए
छीए’ के शुं तें सर्वकाळ अने सर्वक्षेत्रने जाण्या छे?–जो जाण्या छे तो तो तुं ज सर्वज्ञ थयो! (एटले
‘सर्वज्ञ नथी’ एवुं तारुं वचन ‘मारी माता वंध्या छे’–एना जेवुं स्ववचन बाधित थयुं) अने जो तुं
कहे के ‘सर्व क्षेत्र अने सर्व काळने जाण्या वगर हुं सर्वज्ञनो निषेध करुं छुं’–तो ते पण योग्य नथी केमके
एवा बीजा क्षेत्रो (विदेहक्षेत्र) छे ज्यां सर्वज्ञ भगवंतो सदाय बिराजे छे, तेने जाण्या वगर सर्वज्ञनो
निषेध ताराथी केम थई शके? तें न जाण्या होय एवा क्षेत्रमां सर्वज्ञ भगवंतो बिराजे छे. वळी हे मूढ!
जो सर्वज्ञ न होय तो सूक्ष्मदूरवर्ती अने अतीन्द्रिय पदार्थोने कोण जाणे? सर्वज्ञनो अभाव मानतां
अतीन्द्रिय पदार्थोनो पण अभाव थई जशे. राग घटतां घटता तेनो तद्न अभाव पण थई शके छे,
ज्ञान वधतां वधतां ते पूर्णताने पामी शके छे धर्मात्माने स्वसंवेदनथी पोताना श्रद्धा–ज्ञानमां
सर्वज्ञस्वभावनो निर्णय थई गयो छे. स्वसंवेदनथी निज आत्मामां सर्वज्ञशक्तिनो अनुभव आ काळे
ने आ क्षेत्रे पण थई शके छे.–अने जेणे एवो अनुभव कर्यो ते ज्ञानमां सर्वज्ञनो सद्भाव थयो, ने
धर्मनी शरूआत थई. आ रीते अंतरमां सर्वज्ञस्वभाव ते धर्मनुं मूळ छे.