: १८ : आत्मधर्म: २०४
तुं स्थाप निजने मोक्ष पंथे.....
जे जीव मोक्षार्थी छे, मोक्षनो ईच्छुक छे एवा सुपात्र भव्य जीवने
संबोधीने आचार्यदेव आदेश करे छे के हे भव्य! तुं तारा
आत्माने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र स्वरूप मोक्षमार्गमां स्थाप!
आसो सुद पांचमना रोज आफ्रीकावाळा शेठश्री भगवानजीभाईना
मकानना वास्तुप्रसंगे पू. गुरुदेवना भावभीनां प्रवचनमांथी.
(समयसार गाथा: ४१२)
तुं स्थाप निजने मोक्षपंथे,
ध्या, अनुभव तेहने,
तेमां ज नित्य विहार कर,
नहि विहर परद्रव्यो विषे.
हे भव्य! तुं मोक्षमार्गमां तारा आत्माने स्थाप, तेनुं ज ध्यान कर, तेने ज चेत–अनुभव अने
तेमां ज निरंतर विहार कर; अन्य द्रव्योमां न विहर,
जुओ, आचार्यदेव सुपात्र मोक्षार्थी जीवने आज्ञा करीने मोक्षमार्गमां प्रेरे छे. मोक्षार्थीजीवे शुं
करवुं? के देहादिनुं अने रागादिनुं ममत्व छोडीने मोक्षमार्गमां पोताना आत्माने स्थापवो. हे जीव!
अनादिथी बंधमार्गमां आत्माने स्थाप्यो छे. त्यांथी पाछो वाळीने तारा आत्माने हवे मोक्षमार्गमां
स्थाप.
आचार्य भगवाने पोताना आत्माने तो मोक्षमार्गमां स्थाप्यो छे, पोते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–
चारित्ररूपे परिणमीने ते मोक्षमार्गमां आत्माने स्थाप्यो छे, ने बीजा मोक्षार्थीने संबोधीने कहे छे के
भव्य! तुं तारा आत्माने मोक्षमार्गमां स्थाप. ‘अनादिकाळथी पोताना अज्ञान–दोषने विकारमां ज
स्थित रह्यो छे तो हवे मोक्षमार्गमां स्थित केम थाय?–एम कोईने संदेह थाय तो आचार्यदेव कहे छे के
हे भव्य! तुं मुंझा मा! पोतानी प्रज्ञाना दोषने कारणे अनादिथी विकारमां स्थिर होवा छतां हवे
भेदज्ञानवडे तेनाथी आत्माने पाछो वाळीने मोक्षमार्गमां स्थिर करी शकाय छे. माटे अमे कहीए छीए
के हे भव्य! तारी प्रज्ञाना गुणवडे एटले के भेदज्ञानना बळवडे तारा आत्माने तुं विकारथी पाछो वाळ
ने मोक्षमार्गमां स्थाप.
आचार्यदेव घणा घणा प्रकारे जीव–अजीवनुं भेदज्ञान समजावीने २८मा कळशमां कहे छे के
अहा, आवुं स्पष्ट जीव–अजीवनुं भिन्नपणुं अमे बताव्युं, तो हवे क््यां जीवने तत्क्षण ज भेदज्ञान न
थाय? हवे तो जरूर भेदज्ञान थाय ज! माटे हे भव्य! हवे