आवा भेदज्ञानना बळवडे तारा आत्माने
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षपंथमां तुं
परिणमाव.
जुओ, अहीं “दर्शन–ज्ञान–चारित्रना
परिणामने तुं आत्मा तरफ वाळ”–एम कहेवाने
बदले, “तारा आत्माने दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां
स्थाप”–एम कह्युं, एटले रत्नत्रयरूप
मोक्षमार्गरूप तारा आत्माने परिणमावीने तेमां
ज आत्माने स्थाप. पहेलां बीजी गाथामां,
‘दर्शन–ज्ञान–चारित्रमां जे स्थित छे ते स्वसमय
छे’ एम कह्युं हतुं के तेनो ज आ उपदेश छे.
हे भाई! तुं अत्यारसुधी परमां वळ्यो–हवे तुं
स्वमां वळ! परमां पण तुं तारा अपराधथी ज
वळ्यो हतो, ने हवे स्वमां पण तुं तारा गुणथी ज
(–भेद ज्ञानना बळथी ज) वळ.
“जे स्वरूप समज्या विना, पाम्यो दुःख
अनंत”
–जुओ, आ स्वरूपनी अणसमजणने ते
बंधपंथ छे. अने–
“समजाव्युं ते पद नमुं श्री सदगुरु भगवंत”
गुरुउपदेश अनुसार पोते पोतानुं स्वरूप
समज्यो ते मोक्षपंथ छे. संसारमां रखडयो ते
पोताना दोषथी; दोष केटलो?–के परद्रव्यने पोतानुं
मान्युं तेटलो स्वपरना भेदज्ञानरूप प्रज्ञागुणवडे
जीव पोते ज पोताने बंधमार्गथी पाछो वाळीने
मोक्षपंथमां स्थापे छे. अनादिथी बंधमार्गमां रह्यो
होवा छतां तेनाथी जीव पाछो वळी शके छे, ने
कदी नहि अनुभवेला एवा मोक्षमार्गमां पोताने
स्थापी शके छे. माटे हे भाई! एक वार तो
जगतथी जुदो थईने आत्मामां आव! एकवार
तो जगतनो पाडोशी थईने अंतरमां आत्माने
देख! तने कोई अपूर्व आनंदनो अनुभव थशे.
हवे भव्य! एकवार अंतरमां वळी जा....ने
दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप! स्वघरमां ज तारा
आत्माने वसाव! तारा आत्माने निरंतर
रत्नत्रयरूप मोक्षमार्गमां ज स्थाप. बीजी बधी
चिंताने दूर करीने तारा चिदानंदस्वरूपने एकने ज
ध्येय– बनावीने तेने ज ध्याव. जगत आखाथी
उदास थई जा ने एक आत्माना मोक्षमार्गमां ज
उत्साहित थईने तेमां ज आत्माने स्थाप, तेनुं ज
ध्यान कर......
तारा आत्माने स्वतंत्रपणे ज तुं मोक्षमार्गमां
स्थाप...बीजा कोईनो तेमां सहारो नथी. रागने
एकमेक करीने तारा आत्माने न ध्याव, पण
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप निर्मळपर्यायोमां
एकमेक करीने तारा आत्माने ध्याव. आ रीते
निर्मळपर्यायनी साथे आत्माने अभेद करीने कह्युं छे.
अहा! आचार्यदेव कहे छे के हे भव्य! में मारा
आत्माने मोक्षमार्गमां परिणमाव्यो छे ने तुं पण
तारा आत्माने मोक्षमार्गमां परिणमाव! पांचमी
गाथामां पण कह्युं हतुं के, हुं मारा समस्त
निजवैभवथी–आत्मवैभवथी शुद्धआत्मानुं स्वरूप
दर्शावुं छुं अने तेम तमारा स्वानुभवप्रमाणथी
जाणीने ते प्रणाम करजो.–सामा शिष्यनी एटली
लायकात जोईने आचार्यदेवे आ वात करी छे.
अहीं तो सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रने ज स्वद्रव्य
कह्युं छे, ने तेमां जे स्थिर छे तेने ‘स्वसमय’ कह्यो
छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते ज्ञानचेतना छे, ते
ज्ञान चेतनारूप थईने तुं मोक्षमार्गने चेत, तेनो
अनुभव कर...ने रागनो अनुभव न कर. आत्माना
स्वभावनो आश्रय करतां जे निर्मळपरिणाम थाय
छे ते निर्मळपरिणाममां ज तुं विहर, परद्रव्याश्रित
थता एवा रागादि परिणाममां तुं जरापण न
विहर...आ ज मोक्षनो पंथ छे.
आ रीते आचार्यभगवाने भव्य जीवोने माटे
आ मोक्षमार्ग बतावीने तेनी प्रेरणा करी.
ज्ञानीनो निश्चय
छेदाव, वा भेदाव, को लई जाव, नष्ट बनो भले,
वा अन्य को रीत जाव,पण परिग्रह नथी मारो खरे.
(समयसार गा. २०९)
परद्रव्य छेदावो, अथवा भेदावो, अथवा कोई
तेने लई जाओ, अथवा नष्ट थई जाओ, अथवा
गमे ते रीते जाओ, तोपण हुं परद्रव्यने नहि ग्रहुं,
कारण के ‘परद्रव्य मारुं स्व नथी, हुं परद्रव्यनो
स्वामी नथी, परद्रव्य ज परद्रव्यनुं स्व छे,–परद्रव्य
ज परद्रव्यनो स्वामी छे, हुं ज मारुं स्व छुं,–हुं ज
मारो स्वामी छुं’–एम हुं जाणुं छुं
–आ प्रमाणे ज्ञानीनो निश्चय छे.