कारतक : २४८७ : ११ :
दक्षिण तीर्थधामोनी उमंगभरी यात्रा करीने पाछा फरतां वच्चे
कलोल मुकामे पू. गुरुदेव बे दिवस पधार्या हता...कलोलना जैनसमाजे
उत्साहपूर्वक स्वागत करीने गुरुदेवना प्रवचनोनो लाभ लीधो हतो. ते
प्रवचनोनो सार अहीं आपवामां आव्यो छे.
(वीर सं. २४८प वैशाख सुख छठ्ठ–सातम)
*
देहथी भिन्न आत्मतत्त्व शुं चीज छे तेनी आ वात छे. आ समयसारनी १७–१८मी गाथामां
आचार्यदेवे एम कह्युं के चैतन्यनी अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा छे, ते पोते आ–बाळगोपाळ सौने
सदाकाळ अनुभवमां आवतो होवा छतां मूढ–अज्ञानी जीवो स्व–परनी एकत्वबुद्धिने लीधे, अनुभूतिस्वरूप
पोताना आत्माने ओळखता नथी, एटले ‘आ चैतन्यतत्त्वपणे अनुभवाय छे ते ज हुं छुं’–एवुं आत्मज्ञान
तेने उदय थतुं नथी; अने जाण्यावगरनुं श्रद्धान तो मिथ्या छे एटले तेने श्रद्धान पण थतुं नथी; ने श्रद्धाज्ञान
वगर ठरे शेमां? एटले आत्मानुं चारित्र पण तेने सधातुं नथी.–आ रीते श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र वगर
आत्मानी सिद्धि सधाती नथी.
माटे हे मोक्षार्थी जीवो! सर्व प्रकारे उद्यमपूर्वक प्रथम तो तमे आत्मानुं स्वरूप जाणो, यथार्थ स्वरूप
जाणीने तेनी श्रद्धा करो, अने पछी निःशंकपणे तेमां लीन थाओ.–आ रीते श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रवडे आत्मानी
सिद्धि सधाय छे.
राजानुं द्रष्टांत आपीने चैतन्यराजाना श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र करवानुं समजाव्युं छे. ‘राजते–शोभते इति
राजा’–बधाय तत्त्वोमां चैतन्यतत्त्व ज तेना अचिंत्यस्वभावथी शोभी रह्युं छे, तेथी चैतन्यतत्त्व बधा
तत्त्वोमां राजा छे. आवा चैतन्यराजाने देहथी ने रागादिथी भिन्नस्वरूपे बराबर ओळखवो जोईए. चैतन्यने
भूलीने अनादिकाळथी जीव संसार परिभ्रमण करी रह्यो छे. हवे जेने थाक लाग्यो होय ने परिभ्रमणथी छूटवुं
होय– एवा मुमुक्षु जीवोने माटे आ वात छे.
वीसमा कळशमां आचार्यदेव कहे छे के: अनंत (अविनश्वर) चैतन्य जेनुं चिह्न छे एवी आ
आत्मज्योतिने अमे निरंतर अनुभवीए छीए, कारण के तेना अनुभव विना अन्य रीते साध्य आत्मानी
सिद्धि नथी. अहा! जुओ तो खरा! आचार्यदेव कहे छे के आवा चिदानंदस्वरूप आत्माना अनुभवथी ज
साध्य आत्मानी सिद्धि थाय छे, तेथी अमे निरंतर तेने ज अनुभवीए छीए; रागादिने एक क्षण पण अमे
अमारा स्वरूपपणे अनुभवता नथी. अने जे बीजा