केवी छे आत्मज्योति? अविनाशी चैतन्य जेनुं चिह्न छे,–एवी आत्मज्योतिने अमे सतत
वाळतां चैतन्यज्योतपणे आत्मा अनुभवाय छे. ए अनुभव एवो आनंदरूप छे के, आचार्यदेव कहे छे के
तेने ज अमे सततपणे अनुभव्या करीए छीए...एक क्षण पण ते अनुभवमांथी बहार नीकळवा चाहता
नथी. अज्ञानी तो शुभरागने हितरूप के साधनरूप मानीने ते रागना अनुभवमां अटके छे, रागथी भिन्न
चैतन्यचिह्नने ते जाणतो नथी ते चैतन्यज्योत आत्माने ते अनुभवतो नथी.
एवी तारी आत्मज्योतिने तुं जाण. चैतन्य जेनुं चिह्न छे एवी आत्मज्योतिए दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप
त्रणपणुं व्यवहारथी अंगीकार कर्युं छे तोपण ते आत्मज्योति एकपणाथी च्युत थई नथी अने निर्मळपणे
उदय पामी रही छे.–‘आवी आत्मज्योतिने अमे निरंतर अनुभवीए छीए’–आम कहेवामां आचार्यदेवनो
एवो आशय पण जाणवो के अमारी जेम सम्यग्द्रष्टि पुरुषो पण आवा ज आत्मानो अनुभव करे छे, अने
जेओ सम्यग्द्रष्टि थवा मांगता होय तेओ पण अंतरमां अभ्यास वडे आवा आत्माने ज अनुभवो. आवा
आत्माना अनुभवथी ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी सिद्धि थाय छे.
उत्तर:– आबाळगोपाळ सौने आवा आत्मानो अनुभव थई शके छे. परंतु एने माटे अंतरनी
सिवाय बीजुं गमे तेटलुं करवामां आवे तेनाथी जरापण कार्य सिद्धि थती नथी. कयुं कार्य? अहीं मोक्षार्थीनी
वात छे ने मोक्षार्थीनुं कार्य तो मोक्ष ज छे. ते मोक्षनी सिद्धि सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रथी ज थाय छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ए त्रणेय शुद्धआत्माना अनुभवमां समाई जाय छे. तेथी आचार्यदेवे कह्युं के आवा
चैतन्यना अनुभवथी उत्तम बीजुं कांई नथी. आ चैतन्यना अनुभवथी ज मोक्षरूप कार्यनी सिद्धि थाय छे,
बीजी कोई रीते मोक्षकार्य सिद्ध थतुं नथी.
शांति तेमां नथी. चैतन्यनी शांति तो रागथी पार छे. राग तारुं चिह्न नथी, तारुं चिह्न तो चैतन्य ज छे.
आहा! चैतन्य–चिह्न कहीने आचार्यदेवे रागने अने आत्माने स्पष्टपणे जुदा पाडी नांख्या छे, तेमना जुदा
पाडीने चैतन्यलक्षित आत्माने अनुभववो ते ज सम्यग्दर्शननो, सम्यग्ज्ञाननो, सम्यक्चारित्रनो ने मोक्षनो
उपाय छे. आज वीतरागी जिनेद्रभगवंतोनो निर्मोही पंथ छे. भगवंतो आवा अनुभव वडे संसारथी छूट्या,
ने जगतने पण संसारथी छूटवा माटे आवो ज मार्ग बताव्यो. आवो मार्ग समजतां धर्मात्मा भक्तिना
उल्लासथी कहे छे के हे परमात्मा! आपे अमारे माटे मोक्षना खजाना खोली नांख्या...गुणना निधान आपे
अमने देखाड्या... अमारा चैतन्यमां भरेलां अचिंत्य निधान आपे अमने बताव्या...हे नाथ! आ
चैतन्यनिधान पासे ईन्द्रपदना वैभव पण अमने तूच्छ, सडेला तरणां जेवा भासे छे. चैतन्यना आनंदनिधान
पासे राग के रागनां फळ अत्यंत तूच्छ लागे छे. वीतरागी चैतन्यना स्वाद पासे रागना रस फिक्का लागे छे.
अरे जीव! आवा वीतरागी चैतन्यखजाना तरफ तारी वृत्तिने वाळ तो बाह्यवैभव तरफ तारी वृत्ति