: १४ : आत्मधर्म : २०प
तारा अजाण्या चैतन्यना पंथ...संतो तने देखाडे छे. तारा मानेला पंथे तो तुं अनादिनो चाल्यो पण तारा
हाथमां कांई न आव्युं, माटे हवे तारी वात एक कोर मुकीने एकवार आ वात लक्षमां ले. ज्ञानने अंतर्मुख
करीने स्वसंवेदन कर्या सिवाय आत्माने पकडवानी (अनुभववानी) बीजी कोई विधि छे ज नहीं. जेम प्रकाश
करवो ते ज अंधकारने दूर करवानी विधि छे तेम स्वसंवेदनथी चैतन्यप्रकाश करवो ते ज मिथ्यात्वादि
अंधकारने टाळवानी विधि छे. ‘अनुभवीने एटलुं के आनंदमां रहेवुं’–कई रीते आनंदमां रहेवाय? के
आनंदस्वरूप मारो आत्मा ज छे, ए सिवाय जगतमां बीजे क््यांय मारो आनंद नथी–एवी अंतर्मुख श्रद्धा–
ज्ञान करीने आत्मामां ठरतां आनंद अनुभवाय छे, ए ज आनंदमां रहेवानी रीत छे. जेने हजी आत्मानुं
भान पण न होय, अनुभव पण न होय अने कहे के आनंदमां रहेवुं,–तो तेने हजी आनंद शुं चीज छे तेनी
गंध पण नथी, ते पोतानी मिथ्याकल्पनाथी आनंद भले माने,–जेम गांडो पोताने सुखी माने तेम,–परंतु
वास्तविक आनंद के सुख तेने नथी. जे वस्तुमां आनंद भर्यो छे तेना अनुभव वगर आनंदनुं वेदन होय
नहि; अने ज्ञान वगर अनुभव होय नहि. अरे, आत्मा! तारो आनंद तारामां भरेलो ज छे परंतु तारा
आनंदने अनुभववानी वास्तविक रीतनो रस्तो तें कदी लीधो नथी, ऊंधा ज रस्ता लीधा छे. तेथी श्रीमद्
राजचंद्र कहे छे के–
वह साधन बार अनंत कियो,
तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो;
अब कयों न विचारत है मनसें,
कछु और रहा उन साधनसें!
अरे जीव! तुं विचार तो कर के बीजा बधा साधन करवा छतां केम कांई हाथमां न आव्युं? ते बधाथी
जुदी जातनुं एवुं कयुं साधन बाकी रही गयुं–के जेना विना मुक्ति न थई, ने संसारभ्रमण ज रह्युं! ते साधन
अहीं आचार्यदेव ओळखावे छे...अने जगाडीने कहे छे के अरे जीव! तारा चैतन्यतत्त्वनो अनुभव ते ज तारां
मुक्तिनुं साधन छे...एना अनुभव वगर ज तुं रखडी रह्यो छे. ‘अपने को आप भूल के हैरान हो गया.’
वस्तु पोतामां–पोते, अने बहार गोते ए क््यांथी मळे? अने एनी अशांति क््यांथी टळे? पोतानी वस्तुने
बहारमां मानीने तेनी प्राप्ति माटे जेटला साधन करे तेमांथी एक पण साधन क्यांथी साचुं होय? ज्यां होय
त्यां शोधे अने प्रयत्न करे तो जरूर मळे. मारी वस्तु मारामां ज छे–एम समजीने अंतरमां ज शोध.
“ते जिज्ञासु जीवने...थाये सद्गुरुबोध,
तो पामे समकित ते...वर्ते अंर्तशोध.”
(श्रीमद् राजचंद्र)
आत्मामां अंर्तशोधन करवुं एटले श्रद्धाने ज्ञानने चारित्रने आत्मानी सन्मुख करवा ते ज
सम्यग्दर्शनादिनो उपाय छे, ते मोक्षमार्ग छे, बीजो मोक्षमार्ग नथी. मोक्षमार्ग एक ज छे, मोक्षमार्ग बे नथी,
परंतु बे प्रकारे (निश्चयथी ने व्यवहारथी) तेनुं कथन छे. अंतरना अनुभवथी आत्मज्योति निर्मळपणे उदय
पामे तेनुं नाम मोक्षमार्ग. आत्मा पोते पोताना स्वभावथी निर्मळज्योतपणे उछळ्यो त्यां तेने कोई रोकी शके
नहि; जेम दरियो पोताना मध्यबिंदुथी ऊछळीने तेमां भरती आवी तेने सूर्यनो प्रखर ताप पण रोकी शके
नहि, तेम चैतन्यआत्मा अंतरमांथी पोते निर्मळ पर्यायरूपे ऊछळ्यो त्यां तेनी पर्यायनी भरतीने जगतनी
कोई प्रतिकूळता रोकी शके नहीं. अने, जेम बहारनी नदीओना पाणीवडे दरियामां भरती लावी शकाती नथी,
तेम पांच ईन्द्रियोरूपी नदीना प्रवाहवडे चैतन्यमां ज्ञाननी भरती लावी शकाती नथी. आत्मा पोते स्वयंसिद्ध
शक्तिवाळो छे, स्वयमेव छ कारकरूप थईने सम्यग्दर्शनरूपे के केवळज्ञानरूपे क्षणमात्रमां परिणमी जाय–एवी
अचिंत्यशक्ति तेनामां छे. आवी शक्ति बतावीने आचार्यदेव कहे छे के भाई, तुं पोते परमेश्वर थवाने लायक
छो. जेम राजपुत्र राजा थवाने लायक छे तेम आत्मा ज सिद्धपदनुं राज लेवाने लायक छे. अहा! तारा
सिद्धपदनी वात सांभळीने प्रमोद कर. जेम कोईने मोटुं राज्य मळे ने प्रमोदित