Atmadharma magazine - Ank 205
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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कारतक : २४८७ : १प :
थाय, तेम अहीं तो त्रणलोकनुं राज्य एवुं सिद्धपद प्राप्त थवानी वात तने संभळावीए छीए, ते सांभळीने
कोने प्रमोद न उल्लसे? मोक्षार्थीना हैयामां पोताना सिद्धपदनी वात सांभळता रोमेरोमे–चैतन्यना प्रदेशे प्रदेशे
प्रमोद जागे छे, ने ते अंतर्मुख थईने पोताना परमात्मपदने साधे छे.
अनंतशक्तिनो पिंड चैतन्यमूर्ति आत्मा पोते आनंदनो दरियो छे; रागना अवलंबने ते दरियो
ऊछळतो नथी परंतु अंदर डुबकी मारीने एकाग्र थतां मध्यबिंदुथी आनंदनो दरियो ऊछळे छे. जेम काचा
चणामां तुरो स्वाद आवे छे ने वावतां फरीफरीने ऊगे छे, पण तेने सेकी नांखतां मीठो स्वाद आवे छे ने ते
फरीने उगतो नथी; तेम आत्मामां राग–द्वेष–मोहरूपी कषाय छे त्यां सुधी तेनो स्वाद कसायेलो (कषायवाळो–
तुरो) आवे छे ने ते संसारमां जन्म–मरण करे छे, पण अंतरमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रवडे तेने सेकतां
तेना आनंदनो मीठो स्वाद आवे छे ने ते संसारमां फरीने जन्म धारण करतो नथी. चैतन्यना आनंदना
स्वादने चूकीने जीव अनादिथी आकुळताने ज अनुभवी रह्यो छे. भाई, एक वार नक्की कर के हुं पोते ज
आनंदकंद छुं, क्यांय बहारमां मारो आनंद नथी–आवा निर्णयना जोरे अंतर्मुख थतां अतीन्द्रिय आनंदनो
(सिद्ध भगवान जेवो) नमुनो आवी जशे, अने पूर्णानंदनी खातरी थई जशे के आवो परिपूर्ण
आनंदस्वभावी हुं छुं. एटले पूर्ण आनंद प्रगट करवा माटे मारामां ज मारे एकाग्र थवानुं रह्युं, मारा आनंद
माटे मारे बीजा कोईनी पराधीनता न रही–आवी स्वाधीन द्रष्टिथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे. जेनी द्रष्टिमां
ज पराधीनता छे (परना आश्रये लाभ थवानी जेनी मान्यता छे) ते स्व तरफ केम वळशे? ने स्व तरफ
वळ्‌या वगर आत्माना आनंदनी के धर्मनी किंचित् पण प्राप्ति थाय नहीं. स्वाधीनद्रष्टिनी किंमत जगतने
भासती नथी. आखा जगतने अने व्यवहारने द्रष्टिमांथी जतो करवो पडे–एटली स्वाधीनद्रष्टिनी किंमत छे;
मारा शुद्ध आत्मा सिवाय जगतमां बीजा कोईथी लाभ न थाय, व्यवहारना विकल्पना आश्रये पण मने
लाभ न थाय, ते कोईना आश्रयमां मारी सिद्धि नथी–एम स्वाधीनद्रष्टिनी किंमत चूकवीने अंतरमां वळतां
अपूर्व सिद्धि (सम्यग्दर्शनादि) नी प्राप्ति थाय छे, ते ज धर्म छे ने ते ज मुक्तिनो मार्ग छे.
* * * * *
जे मुमुक्षु छे ते सत्संगमां रहीने आत्मसाधन करे
छे, अने सत्संग वखते बीजा धर्मात्माओने धर्मसाधन
करता नजरे देखीने पोताने पण धर्मसाधननो उल्लास
आवे छे, ने उल्लास परिणामवडे ते पोतानुं आत्मसाधन
साधे छे. श्रीमद् राजचंद्रजीए नीचेना शब्दोमां सत्संगनो
खरो महिमा प्रसिद्ध कर्यो छे:
“मुमुक्षुजन सत्संगमां होय तो निरंतर उल्लासित
परिणाममां रही आत्मसाधन अल्पकाळमां करी शके छे,
ए वार्ता यथार्थ छे;..”
(वर्ष २प मुं)