Atmadharma magazine - Ank 205
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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कारतक : २४८७ : :
ज्ञानीने ओळखवानुं चिह्न
भेदज्ञान माटे जेने अंतरमां जिज्ञासा जागी छे,
अने भेदज्ञान माटेनो जे अभ्यास करे छे एवो शिष्य पूछे
छे के प्रभो! आत्मा ज्ञानस्वरूप थयो ते कई रीते
ओळखाय? आत्मा भेदज्ञानी थयो ते कई रीते
ओळखाय? ज्ञानीने ओळखवानुं चिह्न शुं? अनादिथी
आत्मा विकाररूप थयो थको अज्ञानी हतो, ते अज्ञान
टाळीने आत्मा ज्ञानी थयो ते कया चिह्नथी ओळखाय?–ते
समजावो.
जुओ, आ ज्ञानीने ओळखवानी धगश? आवी
धगशवाळा शिष्यने आचार्यदेव ज्ञानीनुं चिह्न ओळखावे
छे:–
परिणाम कर्मतणुं अने
नोकर्मनुं परिणाम जे
ते नव करे जे, मात्र जाणे
ते ज आत्मा ज्ञानी छे. ७प.
जुओ, आ ज्ञानीने ओळखवानुं चिह्न! आवा चिह्नथी ज्ञानीने ओळखे तेने भेदज्ञान थया वगर रहे
नहि, एटले ते पोते पण ज्ञानी थई जाय.
जे आत्मा ज्ञानी थयो ते पोताने एक ज्ञायक स्वभावी ज जाणतो थको ज्ञानभावे ज परिणमे छे, ने
विकारना के कर्मना कर्तापणे ते परिणमतो नथी.–आ ज्ञानीनुं चिह्न छे.
अहीं ज्ञानपरिणामने ज ज्ञानीनुं चिह्न कह्युं; ज्ञानीनुं चिह्न तो ज्ञानमां होय, कांई शरीरमां के रागमां
ज्ञानीनुं चिह्न न होय. शरीरनी अमुक चेष्टावडे के रागवडे ज्ञानी ओळखाता नथी, ज्ञानी, तो तेनाथी भिन्न
छे. माटे आचार्यदेव कहे छे के हे शिष्य! जे जीव ज्ञानने अने रागने एकमेक नथी करतो पण जुदा ज जाणे
छे, जुदा जाणतो थको रागादिनो कर्ता थतो नथी पण ज्ञाता ज रहे छे ने ज्ञानपरिणामनो ज कर्ता थईने
परिणमे छे, तेने तुं ज्ञानी जाण.
व्याप्य–व्यापकपणाना सिद्धांत उपर अहीं ज्ञानीनी ओळखाण करावी छे. ज्ञानपरिणामनी साथे जेने
व्याप्य–व्यापकपणुं छे ते ज्ञानी छे; विकार साथे जेने व्याप्य–व्यापकपणुं छे ते अज्ञानी छे. व्याप्य व्यापकपणुं
एक स्वरूपमां ज होय, भिन्न स्वरूपमां न होय; एटले जेने जेनी साथे एकता होय तेने तेनी ज साथे
व्याप्य–व्यापकपणुं होय, अने तेनी ज साथे कर्ताकर्मपणुं होय. ज्ञानी ज्ञान साथे ज एकता करीने तेमां ज
व्यापतो थको तेनो कर्ता थाय छे, एटले ज्ञानरूप कार्यथी ज्ञानी ओळखाय छे. आवो ज्ञानी विकार साथे
एकता करतो नथी, तेमां ते व्यापतो नथी ने तेनो ते कर्ता थतो नथी. आ रीते ज्ञानने विकार साथे एकता
नथी. ज्ञानीनुं आवुं लक्षण जे जीव ओळखे तेने भेदज्ञान थाय, तेने