Atmadharma magazine - Ank 205
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 7 of 25

background image
: ४ : आत्मधर्म : २०प
विकारनुं कर्तृत्व ऊडी जाय अने ज्ञानमां ज एकता रूपे परिणमतो थको ते ज्ञानी थाय, भेदज्ञान वगर
ज्ञानीनी साची ओळखाण थती नथी.
जेम घडाने अने माटीने एकता छे, परंतु घडाने अने कुंभारने एकता नथी, तेम ज्ञानपरिणामने
अने आत्माने एकता छे परंतु ज्ञानपरिणामने अने रागने के कर्मने एकता नथी; एटले ज्ञानपरिणाम वडे
ज ज्ञानीनो आत्मा ओळखाय छे; ज्ञानपरिणामने रागथी भिन्न ओळखतां पोतामां पण ज्ञान अने रागनी
भिन्नतानुं वेदन थईने, ज्ञानपरिणाम साथे अभेद एवो पोतानो आत्मा ओळखाय छे. ज्ञानीने ओळखवानुं
प्रयोजन तो पोताना आत्मानी ओळखाण करवी ते ज छे, जेणे भेदज्ञान करी लीधुं छे, एवा जीवोनी
ओळखाण वडे आ जीव पोतामां पण एवुं भेदज्ञान करवा मांगे छे. सामा ज्ञानीना आत्मामां ज्ञान अने
रागने जुदा ओळखे ते जीव पोतामां पण ज्ञान अने रागने जरूर जुदा ओळखे, एटले तेने जरूर भेदज्ञान
थाय. भेदज्ञान थतां आ जीव सकळ विकारना कर्तृत्वरहित थईने ज्ञायकपणे शोभे छे. विकारना कर्तृत्वमां तो
जीवनी शोभा हणाय छे, ने भेदज्ञानवडे ते कर्तृत्व छूटतां आनंदमय ज्ञान–परिणामथी ते जीव शोभी ऊठे छे.
आवा ज्ञान– परिणाम ते ज ज्ञानीने ओळखवानी निशानी छे.
जुओ, आ ज्ञानीने ओळखवानी रीत! अहा! ज्ञानीनी ओळखाणनी रीत आचार्यदेवे अद्भुत
बतावी छे. आ रीतथी ज्ञानीने जे ओळखे ते पोते ज्ञानी थया विना रहे नहि, एवी आ ओळखाण छे. आ
ओळखाण ए ज धर्मनी मोटी खाण छे. आ रीतथी जेणे ज्ञानीने ओळख्या तेणे ज ज्ञानीनी खरी नीकटता
करी, जेवो ज्ञानीनो भाव छे तेवो ज भाव तेणे पोतामां प्रगट कर्यो एटले भाव अपेक्षाए तेने ज्ञानी साथे
एकता थई. बाकी क्षेत्रथी भले नजीक रहे पण जो ज्ञानपरिणामथी ज्ञानीने न ओळखे, ने पोतामां
ज्ञानपरिणाम प्रगट न करे, तो ते खरेखर ज्ञानीनी नजीक नथी रहेतो, ज्ञानीना भावथी ते घणो दूर छे.
ज्यारे जीव भेदज्ञान करे छे त्यारे ते आस्रवोथी पाछो वळे छे एटले के बंधभावथी छूटीने मोक्षमार्ग
तरफ वळतो जाय छे. दुःखमय एवो आस्रवो, अने सुखरूप एवो ज्ञानस्वभाव–ए बंने भिन्न छे. एवुं
भेदज्ञान करनार जीव ते क्षणे ज ज्ञानस्वभाव साथे एकता करीने आस्रवोथी छूटो पडे छे. आवा ज्ञान
परिणामनुं नाम भेदज्ञान छे, तेना वडे ज ज्ञानी ओळखाय छे.
ते ज्ञानी धर्मात्मा जाणे छे के हुं परथी भिन्न एक छुं, विकाररहित शुद्ध छुं, ने ज्ञान–दर्शनथी परिपूर्ण
छुं. ज्ञानथी भिन्न जे कोई भावो छे ते हुं नथी. आ रीते ते भेदज्ञानी धर्मात्मा असार अने अशरण एवा
संसारथी पाछो वळीने परम सारभूत अने शरणरूप पोताना स्वभाव तरफ वळे छे; एटले स्वभाव तरफ
वळेला ज्ञानपरिणामने ज ते करे छे, ज्ञानपरिणाम सिवाय बीजा कोई भावनो कर्ता ते थतो नथी, तेने तो
पोताथी भिन्न जाणीने ते तेनो ज्ञाता ज रहे छे.
आचार्यदेव प्रमोदथी कहे छे के अहींथी एटले के ज्यारथी भेदज्ञान थयुं त्यारथी जगतनो साक्षी पुराण
पुरुष प्रकाशमान थयो. भेदज्ञान थतां ज चैतन्यभगवान आत्मा पोताना ज्ञानपरिणामथी झळहळी ऊठ्यो...
आनंदथी शोभी ऊठ्यो.
आटली वात करी के तरत ज जिज्ञासु शिष्यने प्रश्न ऊठ्यो के प्रभो! आवा ज्ञानीने कई रीते ओळखवा?
चैतन्यभगवान झळहळी ऊठ्यो तेने कई रीते ओळखवो? खरेखर शिष्य पोते आवुं भेदज्ञान प्रगट करवा तैयार
थयो छे, एटले हुं पण आवुं भेदज्ञान कई रीते प्रगट करुं! एवी धगशथी तेने प्रश्न ऊठ्यो छे.
त्यारे आचार्यदेव तेने कहे छे के ज्ञानी पोताना ज्ञानमय परिणामने ज करे छे; ज्ञानमय परिणामनुं ज
कर्तापणुं ने रागादिनुं अकर्तापणुं–ते ज्ञानीनुं चिह्न छे, ते ज्ञानीनी निशानी छे. जेम मोटा राजा–महाराजाओने
धजामां चिह्न होय छे, ते चिह्न उपरथी ते ओळखाय छे. तेम ज्ञानीधर्मात्मा तो राजानो पण राजा छे, तेनी
धजानुं कांई चिह्न खरुं? तो कहे छे के हा; रागादिना अकर्तापणारूप जे ज्ञानपरिणाम ते ज ज्ञानीनी
धर्मधजानुं चिह्न छे, ते चिह्नवडे ज्ञानीराजा ओळखाय छे. अने आ रीते ज्ञानपरिणामवडे ज्ञानीने
ओळखनार जीव पोते पण ते काळे ज्ञानस्वरूप थईने, कर्तृत्व रहित थयेलो शोभे छे.
आ रीते सम्यग्द्रष्टि जीवनुं चिह्न बताव्युं. ‘वाह! भारे अद्भुत वात करी छे, जे जागीने जुए तेने
जणाय तेवुं छे.’ (समयसार गाथा ७प उपरना प्रवचनोमांथी)