कारतक : २४८७ : ७ :
सु...ख...धा...म
:: पुण्य नहि–पण आत्मा.
चैतन्यस्वरूप आत्मा ‘परम महिमावंत अनंतसुखनुं धाम छे, तेनी महत्ता जेने न भासी तेओ
बहारमां–ईन्द्रियविषयोमां के तेना हेतुभूत पुण्यमां सुख माने छे; परंतु खरेखर ते पुण्यो तो तृष्णानो
उद्भव करीने आकुळता देनार छे–दुःखदायक छे. सुखदायक तो एक चैतन्यधाम आत्मा ज छे. सुखने कोई
पुण्यनुं के ईन्द्रियविषयोनुं आलंबन नथी, सुखने तो आत्मस्वभावनुं ज अवलंबन छे. आवा चैतन्यनी
रुचिरूप बीजमांथी तो केवळज्ञान अने अतीन्द्रियआनंदरूप फाल पाकशे. अने पुण्यनी रुचिमांथी तो
विषयोनी तृष्णारूप झेरीफाल पाकशे.
अज्ञानीओ चैतन्यसुखने चूकीने, ईन्द्रियविषयोमां सुख मानता होवाथी तेओ सदाय तृष्णाथी
बळ्या–झळ्या विषयोमां ज रत रहे छे ने दुःखी ज थाय छे; ज्ञानीओ पोताना चिदानंदतत्त्वनी सन्मुखता वडे
चैतन्यना अतीन्द्रिय सुखने जाणता थका, अने विषयोमां किंचित् पण सुख नहि मानता थका, आनंदधाम
एवा आत्मामां ज सदाय दिनरात रत रहे छे.
“सुखधाम अनंत सुसंत चही,
दिनरात रहे तद् ध्यान महीं;”
संत मुनिवरो अने साधकधर्मात्माओ अनंत सुखना धाम एवा चैतन्यने ज चाहे छे, अने दिनरात
तेना ध्यानमां रहे छे, आ जगतमां सुखनुं धाम तो आत्मा ज छे. सम्यग्द्रष्टिसंतोए आत्माना विषयातीत
सुखनो स्वाद चाख्यो छे, तेथी तेओ दिनरात तेनी ज रुचिमां रत रहे छे. एक क्षण पण चैतन्यनी रुचि
छोडीने विषयोनी–रागनी–पुण्यनी रुचि करता नथी. ते जाणे छे के मारा सुखनुं धाम पुण्य नथी, मारा सुखनुं
धाम तो आत्मा ज छे. सुखनुं धाम एवुं चैतन्यतत्त्व जेणे जोयुं नथी ते जीवो बहारमां सुख मानता होवाथी,
काया अने कषायथी जरापण निवर्त्या नथी. काया कहेतां बधा ईन्द्रियविषयो, अने कषाय कहेतां
पुण्यपरिणाम पण लई लेवा. तेमां जे सुख माने ते तेनाथी केम निवर्ते? बहारमां ईन्द्रियविषयोनो संयोग
भले न देखाय पण तेना अभिप्रायमां तो ईन्द्रियविषयोनो संग पड्यो ज छे. ज्यां चैतन्यनो संग (–रुचि–
श्रद्धा–ज्ञान–एकाग्रता) नथी त्यां विषयोनो संग जरूर छे. अने विषयो तरफनी वृत्ति कोने होय? के
विषयतृष्णाथी जे दुःखी होय तेने ज विषयो तरफनी वृत्ति होय. जो सुखी होय–तृप्त होय तो विषयो तरफनी
तृष्णा केम थाय? माटे पुण्यफळ भोगववानी तृष्णा ते दुःख ज छे. सुख तो ज्ञानानंद स्वरूप चैतन्यना
भोगवटामां ज छे.
आत्मा ज्ञानतत्त्व छे, शुभाशुभराग ते ज्ञानतत्त्वथी विरुद्ध छे. राग शुभ हो के अशुभ हो,–
मिथ्याद्रष्टिनो हो के सम्यग्द्रष्टिनो हो, ते ज्ञानतत्त्वथी बहार ज छे.–आवुं ज्ञानतत्त्व पोते ज सुखस्वरूप छे.
जेम आत्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप छे, तेम आत्मा स्वयं सुखस्वरूप छे. तेनुं ज्ञान अने सुख बंने ईन्द्रियोथी पार
छे, रागथी पण पार छे.
शुभराग ते पुण्यबंधनुं कारण छे पण ते कांई सुखनुं कारण नथी. पुण्यबंध पण दुःखनुं ज साधन छे,
केमके ते पुण्यना फळमां जे ईन्द्रियविषयोनी सामग्री मळशे ते सामग्री तरफना वलणवाळा जीवो तृष्णाथी
दुःखी ज थाय छे. सुख तो अंतर्मुख थईने अतीन्द्रिय चैतन्यना अनुभवमां ज छे. माटे सुखनुं धाम आत्मा
छे, सुखनुं धाम पुण्य नथी. सामग्रीने अवलंबीने सुख नथी, स्वभावने अवलंबीने ज सुख छे.
जेम रेतीना रणमां मृगतृष्णामांथी (झांझवाना