Atmadharma magazine - Ank 205
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म : २०प
जळमांथी) पाणी मेळववानी ईच्छाथी वेगपूर्वक दोडतुं
तरस्युं हरणुं दुःखी ज थाय छे, झांझवाना जळथी कदी पण
तेनी तृषा छीपती नथी; तेम आ संसाररूपी रेतीना रणमां
पांच ईन्द्रियना विषयरूप पुण्यफळो तो मृगतृष्णा
(झांझवाना जळ) जेवा छे, तेमां खरेखर सुख नथी पण
द्रष्टिभ्रमने लीधे अज्ञानीने त्यां सुखनी कल्पना थई गई
छे, तेथी विषयोमांथी सुख मेळववानी लालसाथी वेगपूर्वक
विषयोमां धसता अज्ञानीजीवो तृष्णाथी दुःखी ज थाय छे, विषयो प्रत्येना वलणथी कदीपण तेने सुख मळतुं
नथी. अहो जीवो! चैतन्यतत्त्वमां ज सुख छे, बहारमां जगतना कोई विषयोमां सुख नथी, माटे बाह्यवृत्ति
छोडीने अंतरमां वळो...आम संतो सुखनुं धाम बतावे छे, अने विषयतृष्णाना वेगे चडेला जीवोने पाछा
वाळे छे के अरे जीवो! आ चैतन्य तरफ वळो...ते ज सुखनुं धाम छे, ते ज आनंदनुं धाम छे.
बाह्यमां पुण्यफळनी सामग्री मळतां अज्ञानी माने छे के मने सुखनुं साधन मळ्‌युं; आचार्यदेव कहे छे
के अरे मूढ! ए तारा सुखनुं साधन नथी, परंतु जेटलो तुं ते सामग्रीने अवलंब्यो तेटलुं तने दुःख मळ्‌युं.
सुख तो समस्त विकल्पोथी रहित परमचैतन्यना आहलादरूप स्वरूपतृप्तिमां ज छे. चैतन्यतत्त्व पोते ज
सुखनुं साधन छे. चैतन्यनुं जे अतीन्द्रिय सुख छे ते ज खरुं सुख छे, ए सिवाय बाह्यविषयोमां जे
ईन्द्रियोसुख भासे छे ते तो झांझवाना जळनी जेम अज्ञानीनी मात्र कल्पना ज छे. जे अतीन्द्रिय वास्तविक
सुख छे ते तो आत्माथी ज उत्पन्न अने विषयोथी पार छे, ते सुख आत्माने ज अवलंबशे पण विषयोने
नहि अवलंबे.–आवुं स्वाधीनसुख ते ज साचुं सुख छे. विषयोने आधीन थईने अज्ञानी जे सुख माने छे ते
सुख नथी पण दुःख ज छे.
* ईन्द्रियसुख तो परना संबंधवाळुं होवाथी पराधीन छे, ने अतीन्द्रियसुख परना संबंध वगर
आत्माने ज आधीन छे.
* ईन्द्रियसुख तो अनेक विघ्नवाळुं छे, खावा–पीवा वगेरेनी अनेक तृष्णाने लीधे तेमां आकुळता
छे, अने अतीन्द्रियसुख तो विघ्नवगरनुं छे. तेमां विषयो मेळववानी आकुळता नथी पण तृप्ति छे.
* ईन्द्रियसुख तो विच्छिन्न छे, सातानो उदय पूरो थतां ज असाताथी जीव दुःखी थाय छे,
ईन्द्रियसुख कायम रहेतुं नथी, जेमां सुख कल्प्युं होय ते सामग्री पण कायम रहेती नथी. ज्यारे अतीन्द्रिय
सुखना साधनरूप चैतन्यतत्त्व तो कायम छे,–ते चैतन्यना आश्रये थयेलुं अतीन्द्रियसुख अच्छिन्न छे.
* ईन्द्रियसुख तो बंधनुं कारण छे, पुण्यनुं फळ भोगववानी जे रागवृत्ति ते नवाकर्मबंधनुं कारण
थाय छे. अने चैतन्यना अनुभवरूप अतीन्द्रिय सुख तो राग वगरनुं होवाथी बंधनुं कारण थतुं नथी, ते तो
मोक्षनुं कारण थाय छे. अने–
* पुण्यना फळने आधीन वर्ततुं ते ईन्द्रियसुख तो विषम छे, तेमां वधघट थया करती होवाथी ते
अत्यंत अस्थिर छे, ते एक सरखुं रहेतुं नथी. पूर्ण अतीन्द्रियसुख आत्माना आधारे वर्ततुं होवाथी वधघट
रहित स्थिर रहे छे. जे पूर्ण सुख प्रगट्युं ते प्रगट्युं, पछी ते सदाकाळ एवुं ने एवुं रह्या करे छे.
आ रीते आत्माश्रित अतीन्द्रियसुख ते ज खरुं सुख छे, ते ज प्रशंसनीय अने ईच्छवायोग्य छे;
ईन्द्रियसुख ते दुःख ज छे, ते प्रशंसनीय नथी, ईच्छवा योग्य नथी. अने, जो ईन्द्रियसुख ते दुःख ज छे–तो
पछी, तेना साधनरूप एवुं पुण्य ते पण पापनी जेम दुःखनुं ज साधन छे–एम सिद्ध थाय छे. अतीन्द्रिय
आत्मस्वभाव ते एक ज सुखनुं साधन छे, माटे सर्वउद्यमवडे सम्यक् प्रकारे तेने ओळखी, तेमां एकाग्रतावडे
रागद्वेष छोडीने शुद्धोपयोगी थवुं ते ज शरण छे, ते ज सुख छे, ते मोक्षनो उपाय छे.
प्रवचनसार गाथा ७प–७६ उपरना प्रवचनमांथी.
२०१६ना आसो वद ३–४