Atmadharma magazine - Ank 206
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : २०६
अने बंधने जुदा करवानी तालावेली जागी छे तेथी साधन पूछे छे के हे नाथ! तेने जुदा करवानुं साधन मने
बतावो.
त्यारे आचार्यदेव र९४ मी गाथामां साधन बतावे छे :–
जीव बंध बंने, नियत निज निज लक्षणे छेदाय छे,
प्रज्ञा छीणी थकी छेदतां बंने जुदा पडी जाय छे.
(आ गाथा घणी सरस छे...पू. गुरुदेव प्रवचनमां अध्यात्मनी मस्तीपूर्वक शांत हलकथी ज्यारे आ
गाथा बोल्या त्यारे सभाजनो डोली ऊठ्या हता. अहा! गुरुदेवना श्रीमुखे आत्माना मोक्षनुं साधन
सांभळतां मुमुक्षुजीवोने घणी प्रसन्नता थती हती. गुरुदेव कहेता हता–)
भगवान! सांभळ...आ तारा मोक्षनुं साधन! आत्मा अने बंधने जुदा करवारूप जे ‘कार्य’ , तेनो
‘कर्ता’ आत्मा, तेना ‘साधन’ संबंधी ऊंडी विचारणा (मीमांसा) करवामां आवतां, ‘भगवती प्रज्ञा’ ज
साधन छे, केमके निश्चये पोताथी भिन्न साधननो अभाव छे.
जुओ, आ मुमुक्षुनी विचारणा! आचार्यदेव कहे छे के भाई, जो ऊंडो विचार कर तो तारा मोक्षनुं
साधन तने तारामां ज देखाशे. आचार्यदेव पोते साधननो निर्णय करीने शिष्यने पण प्रेरे छे के जो भाई!
तारुं साधन ताराथी जुदुं न होय. राग तो तारा स्वभावथी जुदो भाव छे. ज्ञानस्वरूप बुद्धि, एटले के
अंतरमां वळेलुं ज्ञान –ते ज तारुं मोक्ष माटेनुं साधन छे. एटले के भगवती प्रज्ञा ज तारुं मोक्षनुं साधन छे.
ते प्रज्ञावडे छेदवामां आवतां आत्मा अने बंध जरूर छूटा पडी जाय छे.
जुओ, आ भगवती प्रज्ञाने साधन कह्युं तेमां क््यांय राग न आव्यो, क््यांय व्यवहारनुं अवलंबन न
आव्युं, पण पोतामां पोताना स्वभावनुं ज अवलंबन आव्युं. अहा, आचार्यदेवे आत्माथी अभिन्न
भगवतीप्रज्ञाने ज मोक्षनुं साधन बतावीने अलौकिक वात समजावी छे. तेओश्री पोताना स्वानुभवपूर्वक
कहे छे के आवी प्रज्ञाछीणी वडे आत्मा अने बंधने छेदी शकाय छे एम अमे जाणीए छीए.
बंधनथी छूटवानी जेने भावना छे, एवो मोक्षार्थी जीव पूछे छे के प्रभो! मारा आत्मामांथी बंधननो
छेद कई रीते थाय? मारा आत्माने बंधनथी जुदो करवानुं साधन शुं? आम पूछनार शिष्य एटले सुधी तो
आव्यो छे के बंधभावने छेदवाथी मुक्ति थशे, कोई रागवडे के देहादिनी क्रियावडे मुक्ति नहि थाय. एटले
देहनी क्रिया के रागादि ते मारुं कार्य नथी. मारुं कार्य तो बंधने छेदवानुं छे, आत्माने बंधनथी मुक्त करवो ते
ज मारुं कार्य छे, अने मारो आत्मा ज तेनो कर्ता छे. हवे तेनुं साधन शुं एनो ऊंडो विचार करे छे.
आचार्य देव कहे छे के हे भव्य! मोक्षरूपी जे तारुं कार्य तेना साधननी ऊंडी मीमांसा करवामां
आवतां, ते साधन तारामां ज छे, तारा मोक्षनुं साधन खरेखर ताराथी जुदुं नथी; तारा आत्माथी अभिन्न
एवी भगवतीप्रज्ञा ज बंधने छेदवानुं तारुं साधन छे. अहो, एकवार श्रद्धा तो कर के हुं ज्ञानस्वरूप छुं ने
मारा मोक्षनुं साधन पण ज्ञानस्वरूप भगवतीप्रज्ञा ज छे, एनाथी जुदुं कोई साधन नथी. कर्ता आत्मा, अने
साधन राग–एम होई शके नहि. राग तो बंधन छे, ते पोते बंधनथी छूटवानुं साधन केम होय? सम्यग्दर्शन
ते पण मिथ्यात्वना बंधनथी छूटकारो छे, तेनुं साधन राग नथी पण चैतन्यस्वरूप आत्मा तरफ वळेली प्रज्ञा
ज तेनुं साधन छे, तेथी ते प्रज्ञा ‘भगवती’ छे.
मोक्षना उपायनो खरो विचार पण जीवे कदी कर्यो नथी, मोक्षनुं साधन बहारमां ज शोध्युं छे; पण
मोक्ष करनार जे आत्मा तेनाथी जुदुं मोक्षनुं साधन होय नहि. मोक्षनुं साधन रागथी तो जुदुं होय. पण
ज्ञानथी जुदुं न होय.