सहवर्ती अनंतगुणो ने क्रमवर्ती अनंत पर्यायो तेमां आवी जाय छे; पण राग तेमां नथी आवतो. आत्माथी
भिन्न एवा रागादिक तो बंधनुं स्वलक्षण छे, ते रागादिभावो कांई चैतन्यनी जेम आत्माना समस्त गुण–
पर्यायोमां व्यापता नथी, तेओ तो चैतन्यचमत्कारथी सदाय भिन्नपणे ज भासे छे. चैतन्य वगरनो
आत्मलाभ कदि संभवतो नथी, परंतु राग वगरनो आत्मलाभ तो संभवे छे. चैतन्य वगरनो, चैतन्यथी
जुदो आत्मा कदी प्राप्त थई शकतो नथी, परंतु राग वगरनो, रागथी जुदो आत्मा तो प्राप्त थाय छे–
अनुभवमां आवे छे. अहो! चैतन्य अने रागनुं केटलुं स्पष्ट जुदापणुं! भाई, तारे तारुं चैतन्यजीवन सफळ
करवुं होय–साचुं सुखी जीवन जीववुं होय तो रागने तारा चैतन्यघरमां आववा न दईश. तारा चैतन्यने
रागथी जुदुं ज राखजे.
जाणतुं. ज्ञान एम जाणे छे के आ जे जाणनार छे ते हुं छुं, अने आ रागपणे जे जणाय छे ते हुं नथी, ते
बंधभाव छे. ते बंधभावमां चेतकपणुं नथी. मारा चेतकपणामां ते ज्ञेयपणे जणाय छे. आ रीते ज्ञेय–
ज्ञायकपणानो नीकट संबंध होवा छतां रागने अने ज्ञानने एकता नथी पण भिन्नता छे. चोक्कस लक्षणना
भेदथी तेमने जुदा जाणतां ज अपूर्व भेदज्ञान थईने ज्ञान रागथी जुदुं पडी जाय छे. आवुं रागथी जुदुं
परिणमतुं ज्ञान ते ज मोक्षनुं साधन छे.
ज्ञानने आचार्यदेवे ‘भगवती प्रज्ञा’ कहीने तेनुं बहुमान कर्युं छे, ते ज खरेखर मोक्षनुं साधन छे.
साधन तारामां ज देखाशे.
छे तेना पुरुषार्थनुं अद्भुत वर्णन १८१ मा कलशमां कर्युं छे. :–
सूक्ष्मेऽन्तः संधिबंधे निपतति रभसात् आत्मकर्मोभयस्य ।
आत्मानं मग्नमंतः स्थिरविशद्लसत् धाग्नि चैतन्यपूरे
बंधं चाज्ञानभावे नियमितभमितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ