Atmadharma magazine - Ank 206
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : २०६
वर्ते छे ते आत्मा छे,–एम चैतन्यलक्षणथी आत्माने लक्षित करवो. आत्मा चिन्मात्र छे–एम लक्षमां लेतां
सहवर्ती अनंतगुणो ने क्रमवर्ती अनंत पर्यायो तेमां आवी जाय छे; पण राग तेमां नथी आवतो. आत्माथी
भिन्न एवा रागादिक तो बंधनुं स्वलक्षण छे, ते रागादिभावो कांई चैतन्यनी जेम आत्माना समस्त गुण–
पर्यायोमां व्यापता नथी, तेओ तो चैतन्यचमत्कारथी सदाय भिन्नपणे ज भासे छे. चैतन्य वगरनो
आत्मलाभ कदि संभवतो नथी, परंतु राग वगरनो आत्मलाभ तो संभवे छे. चैतन्य वगरनो, चैतन्यथी
जुदो आत्मा कदी प्राप्त थई शकतो नथी, परंतु राग वगरनो, रागथी जुदो आत्मा तो प्राप्त थाय छे–
अनुभवमां आवे छे. अहो! चैतन्य अने रागनुं केटलुं स्पष्ट जुदापणुं! भाई, तारे तारुं चैतन्यजीवन सफळ
करवुं होय–साचुं सुखी जीवन जीववुं होय तो रागने तारा चैतन्यघरमां आववा न दईश. तारा चैतन्यने
रागथी जुदुं ज राखजे.
ज्ञानमां भिन्नज्ञेयपणे रागादिक जणाय छे ते तो ज्ञाननुं चेतकपणुं जाहेर करे छे, ते कांई ज्ञानने
रागपणे जाहेर नथी करतुं. अने ज्ञान पण ते रागने रागपणे ज जाणे छे, तेने स्वपणे (ज्ञानपणे) नथी
जाणतुं. ज्ञान एम जाणे छे के आ जे जाणनार छे ते हुं छुं, अने आ रागपणे जे जणाय छे ते हुं नथी, ते
बंधभाव छे. ते बंधभावमां चेतकपणुं नथी. मारा चेतकपणामां ते ज्ञेयपणे जणाय छे. आ रीते ज्ञेय–
ज्ञायकपणानो नीकट संबंध होवा छतां रागने अने ज्ञानने एकता नथी पण भिन्नता छे. चोक्कस लक्षणना
भेदथी तेमने जुदा जाणतां ज अपूर्व भेदज्ञान थईने ज्ञान रागथी जुदुं पडी जाय छे. आवुं रागथी जुदुं
परिणमतुं ज्ञान ते ज मोक्षनुं साधन छे.
ज्यां ज्ञान अने राग बंनेने भिन्न भिन्न जाण्या त्यां तेमनी एकतानो भ्रम रहेतो नथी, एटले ज्ञान
रागमां एकतारूप बंधभावे प्रर्वततुं नथी, पण रागथी भिन्न मोक्षभावे परिणमे छे. आथी आवा पवित्र
ज्ञानने आचार्यदेवे ‘भगवती प्रज्ञा’ कहीने तेनुं बहुमान कर्युं छे, ते ज खरेखर मोक्षनुं साधन छे.
मोक्षना साधननी आवी मीमांसा कोण करे?–के जे जीव मोक्षार्थी होय, संसारनो रस जेने ऊडी गयो
होय, एटले कषायो उपशांत थई गया होय ने मात्र मोक्षनी ज अभिलाषा जेना अंतरमां होय–
“कषायनी उपशांतता मात्र मोक्ष अभिलाषा,
भवे खेद अंतर दया ते कहिये जिज्ञास.”
–एवो जिज्ञासु आत्मार्थी जीव मोक्षना साधननी मीमांसा करे छे, अंतरमां ऊंडो विचार करीने
निर्णय करे छे, भेदज्ञान करे छे, अरे जीव! अंतरमां ऊंडो ऊतरीने एकवार तपास तो कर. तने तारा मोक्षनुं
साधन तारामां ज देखाशे.
र९४ मी गाथानी टीकामां आचार्यदेवे भगवती प्रज्ञाने ज मोक्षना साधन तरीके वर्णवीने पछी तेना
उपर कलश पण अलौकिक चडाव्यो छे, तीक्ष्ण प्रज्ञाछीणी कई रीते आत्मा अने बंधने अत्यंत जुदा करी नांखे
छे तेना पुरुषार्थनुं अद्भुत वर्णन १८१ मा कलशमां कर्युं छे. :–
प्रज्ञाछेत्री शितेयं कथमपि निपुणैः पातिता सावधानैः
सूक्ष्मेऽन्तः संधिबंधे निपतति रभसात् आत्मकर्मोभयस्य ।
आत्मानं मग्नमंतः स्थिरविशद्लसत् धाग्नि चैतन्यपूरे
बंधं चाज्ञानभावे नियमितभमितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ
।।
आ कलश उपरनुं भेदज्ञानप्रेरक प्रवचन आगामी अंकमां वांचो.