Atmadharma magazine - Ank 206
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: ४ : आत्मधर्म : र०६
– परम शांति दातारी –
अध्यत्म भवन
भगवान श्री पूज्यपादस्वामीरचित ‘समाधि शतक’ उपर पू. गुरुदेवना
अध्यात्म भावना भरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार
*
(आत्मधर्मनी चालु लेखमाळा)
*
वर स. २४८२ असड सद त्रज
भेदज्ञान अंतरात्माने पोताना चैतन्यस्वरूप आत्मामां ज “आ हुं” एवी आत्मबुद्धि छे, ए सिवाय
बाह्यमां द्रश्यमान एवा देहादि कोई पण पदार्थोमां तेने आत्मबुद्धि थती नथी, एम ४४ मी गाथामां कह्युं.
धर्मात्माए देहथी भिन्न, शब्दथी पार अने विकल्पथी पण अगोचर एवा आत्मतत्त्वने स्वसंवेदनथी जाण्युं
छे. अने तेनी भावना पण करे छे छतां हजी अस्थिरताने लीधे तेने राग–द्वेष पण थतां देखाय छे. तेथी जिज्ञासु
शिष्यने समजवा माटे प्रश्न ऊठे छे के हे स्वामी! देहथी भिन्न आत्माने जाण्यो होवा छतां अने तेने भावतां होवा
छतां धर्मात्माने पण फरीफरीने आ रागद्वेष केम थाय छे?–रागद्वेष रहित समाधि तरत केम थती नथी? देहादिथी
जुदापणुं जाण्या छतां तेमां रागद्वेष केम थाय छे? (एक तो आ अपेक्षानो प्रश्न छे.) बीजी अपेक्षा एम पण छे के
आत्मा देहथी भिन्न छे–एम जाण्या छतां अने तेनी भावना करवा छतां जीवने फरीने पण भ्रांति केम थाय छे?
एटले के फरीने पण ते अज्ञानी केम थई जाय छे?–एना उत्तरमां आचार्यदेव कहे छे के :–
जानन्नप्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि
पूर्वविभ्रमसंस्काराद्भ्रांतिं भूयोऽपि गच्छति ।। ४५।।
देहथी भिन्न आत्मतत्त्वने जाणवा छतां, अने भाववा छतां फरीने पण जे भ्रांति थई जाय छे अथवा
रागद्वेष थाय छे ते पूर्वना विभ्रमना संस्कारने लीधे छे. देहथी भिन्नता जाण्या पछी राग–द्वेष रहित समाधि
थवाने बदले हजी पण राग द्वेष थाय छे तेनुं कारण अनादिथी चाली आवती राग–द्वेषनी परंपरा हजी
सर्वथा तूटी नथी, तेथी तेना संस्कार चालु छे. तेथी तेने ते अस्थिरतारूपी भ्रांति छे; अथवा कोई जीवने
एकवार भेदज्ञान थया पछी पाछुं अज्ञान अने भ्रांति थई जाय छे तो ते जीव वर्तमानमां चैतन्यभावनाना
संस्कार भूलीने पूर्वना विभ्रमना संस्कार फरीने ताजा करे छे ते कारणे तेने भ्रांति थाय छे–एम समजवुं. आ
रीते फरीने जे जीव भ्रांति करे छे