मागशर : र४८७ : प :
ते जीव बहिरात्मा थई जाय छे. माटे अंतरात्माने सावधान करे छे के हे अंतरात्मा! देहथी भिन्न
चैतन्यतत्त्वने जाणीने तें जे अपूर्व दशा प्रगट करी छे तेमां भेदज्ञाननी एवी द्रढ भावना राखजे के पूर्वनी
भ्रांतिना संस्कार फरीने जागे नहीं.
अथवा, आ ‘समाधि’ ना उपदेशनुं शास्त्र होवाथी समाधिनी अपेक्षाए लईए तो भेदज्ञान पछी
पण जेटला राग–द्वेष थाय छे तेटली असमाधि छे. भेदज्ञानी–अंतरात्मा थया पछी पण आ असमाधि केम?
तो कहे छे के रागद्वेषना अनादिना संस्कार हजी चाल्या आवे छे तेथी ते रागद्वेष थाय छे. स्त्री–पुत्र–बंधु
वगेरेना वियोगथी धर्मीनेय शोक थई आवे, रूदन पण आवी जाय; तेम ज बंधु–लक्ष्मी–स्त्री वगेरेना
संयोगथी धर्मीने पण हर्षपरिणाम थई आवे–केमके हजी वीतरागीसमाधि थई नथी त्यां, भेदज्ञान होवा छतां
एवा हर्ष–शोकना परिणाम वर्ते छे, एटले ज्ञानचेतना साथे तेने तेटली कर्मचेतना पण छे. तेने श्रद्धा–
ज्ञानमां भ्रांति नथी परंतु अस्थिरता अपेक्षाए भ्रांति कहेवाय. जेने श्रद्धाज्ञानमां पण भ्रांति थई जाय ते तो
बहिरात्मा छे. भेदज्ञाननी भूमिकामां पण जेटला राग–द्वेष थाय तेटली असमाधि छे, ते राग–द्वेष टाळीने
वीतरागपणे स्वरूपमां ठरे त्यारे ज पूर्ण समाधि अने शांति थाय छे. आवी समाधि प्राप्त करवा माटे
धर्मीजीव केवा चिंतवन वडे ते राग–द्वेष टाळीने मध्यस्थ थाय छे–ते हवेनी गाथामां कहे छे.
[वीर सं. २४८र अषाड सुद चोथ : समाधिशतक गा. ४६]
अचेतनमिदं द्रश्यमद्रश्यं चेतनं ततः ।
क्व रुष्यामि क्व तुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यतः ।। ४६।।
आ जे शरीरादि द्रश्य पदार्थो छे ते तो अचेतन छे, तेने तो कांई खबर नथी के कोण अमारा उपर
राग करे छे के कोण द्वेष करे छे? अने राग–द्वेषादिने जाणनार जे चेतनतत्त्व छे ते तो ईन्द्रियोथी अग्राह्य–
अद्रश्य छे; तो हुं कोना उपर राग–द्वेष करुं? माटे बाह्य पदार्थोथी उदासीन थईने हुं मध्यस्थ थाउं छुं.–आम
धर्मी विचारे छे, ने पोतानी परिणतिमां समाधि राखे छे.
आ शरीर रूपाळुं, के आ शरीर काळुं–एवी बुद्धिथी राग के द्वेष करुं त्यां शरीर तो बिचारुं कांई जाणतुं
नथी. आ शरीर ज हुं नथी, शरीर तो अचेतन छे. अचेतन उपर रागद्वेष करवाथी शुं? एटले शरीर अने
आत्माने भिन्न भिन्न देखनार ज्ञानीने राग–द्वेषनो अभिप्राय रहेतो नथी सुंदर स्त्रीने देखे त्यां ‘आ स्त्री
सुंदर छे’ एम मानीने अज्ञानी राग करे छे. ज्ञानी तो आत्मा अने शरीरने भिन्न भिन्न देखे छे के आ जे
रूपाळुं शरीर देखाय छे ते तो अचेतन परमाणुनुं ढींगलुं छे, तेने तो खबर पण नथी के कोण तेना उपर
प्रीति करे छे! अने अंदर स्त्रीना शरीरमां जे आत्मा रहेलो छे ते तो मने आंखथी देखातो नथी, तो देख्या
वगर तेना उपर राग शुं? माटे मारा राग–द्वेषनो कोई विषय नथी; हुं तो ज्ञाता रहीने उदासीन–मध्यस्थ
थाउं छुं. पर प्रत्ये मध्यस्थ रहीने हुं मारा स्वतत्त्वने ज विषय करुं छुं. आत्मा ज मारो ध्येय छे...तेने ज
ज्ञाननो विषय बनावीने हुं मध्यस्थ थाउं छुं. आ मध्यस्थता ते ज समाधि छे. समकितीने ज आवी समाधि
थाय छे. जेना ज्ञाननो विषय स्व–तत्त्व नथी तेने परप्रत्येना राग–द्वेषनो मिथ्या अभिप्राय वर्ते छे, एटले
तेने असमाधि ज थाय छे.
धर्मीने अल्प रागद्वेष थाय छतां ज्ञाननो विषय (ज्ञाननुं ध्येय) पलटी गयेल छे. ज्ञान–आनंदरूप
आत्मा ज मारो स्वविषय छे. ज्यां राग–द्वेष थाय त्यां अंतरना चैतन्य विषयने वारंवार स्पर्शीने ज्ञानी
रागद्वेषने टाळे छे. अज्ञानी बाह्य विषयो प्रत्ये ज रोष–तोष करे छे, तेनुं ध्येय ज बहारमां गयुं छे. ज्ञानीए
अंतरना चैतन्यस्वभावने ज ध्येय बनाव्युं छे.
हुं तो ज्ञानमूर्ति ज्ञायक छुं...जगतना पदार्थो सौ सौना परिणमन प्रवाहमां चाल्या जाय छे...जेम नदीमां
पाणीनुं पूर आवे त्यां पाणीनो प्रवाह तो चाल्यो ज जाय छे...कोई अज्ञानी कांठे ऊभो ऊभो एम माने के
“आ मारुं पाणी आव्युं..ने चाल्युं जाय छे!! अरे! मारुं पाणी चाल्युं जाय छे!!” तो ते दुःखी थाय. अथवा
एम माने के पाणीना प्रवाहमां हुं तणाई जाउं छुं–तो ते दुःखी ज थाय. पण कांठे ऊभो ऊभो मध्यस्थपणे
जोया करे तो तेने कांई दुःख न थाय. तेम जगतना पदार्थोनो परिणमन प्रवाह चाल्यो जाय छे; तेनो
मध्यस्थपणे ज्ञाता