Atmadharma magazine - Ank 206
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : २०६
रहेवाने बदले जे अज्ञानी जीव एम माने छे के हुं आ पदार्थोने परिणमावुं छुं, अथवा आ मारां पदार्थो छे,–
ते जीव मोहथी दुःखी थाय छे. अथवा जे जीव मध्यस्थ–वीतरागी ज्ञाता न रहेतां ते परिणमन प्रवाहमां
राग–द्वेष करीने तणाय छे तेने पण रागद्वेषथी असमाधि अने दुःख थाय छे. पोताना चिदानंदस्वभावमां
एकाग्रता करीने बाह्यपदार्थो प्रत्ये उदासीन थई जतां रागद्वेष थता नथी. ने वीतराग समाधिरूप आनंद
अनुभवाय छे; माटे धर्मात्माए तेनुं ज अवलंबन लेवुं जोईए.
।। ४६।।
हवे मूढ जीवोना त्याग–ग्रहणनो विषय शुं छे अने धर्मात्माना त्याग–ग्रहणनो विषय शुं छे, ते
दर्शावे छे–
त्यागादाने बहिर्मूढः करोत्यध्यात्ममात्मवित् ।
नान्तर्बहिरूपादानं न त्यागो निष्ठितात्मनः ।। ४७।।
अज्ञानीनो विषय ज बाह्य छे एटले बाह्य पदार्थोमां ज ते ग्रहण–त्यागनी बुद्धि करे छे, आ बाह्य
पदार्थो ईष्ट छे माटे तेने ग्रहण करुं, ने आ बाह्य पदार्थो अनीष्ट छे माटे तेने छोडुं,–आ रीते बाह्य पदार्थोमां बे
भाग पाडीने तेने ग्रहण–त्याग करवा मांगे छे, तेमां एकलो रागद्वेषनो ज अभिप्राय छे एटले तेने असमाधि
ज छे. ज्ञानीनो विषय अंतरमां पोतानो आत्मा ज छे; समस्त बाह्य पदार्थोने ते पोताथी भिन्न ज जाणे छे
एटले कोई बाह्य पदार्थोने हुं ग्रहुं के छोडुं–एवुं तेने रह्युं नथी. परपदार्थ मारो छे नहि तो हुं तेने केम ग्रहुं? अने
परपदार्थ मारामां छे नहि तो हुं तेने केम छोडुं? माटे बाह्यमां मारे कांई ग्रहण–त्यागयोग्य नथी. अंतरात्मा
पोताना शुद्धआत्माने ग्रहण करीने (एटले के तेनामां श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रथी एकाग्र थईने) रागादि परभावोने
छोडे छे. आ रीते अंतरमां ज तेने ग्रहण त्याग छे. आ रीते ज्ञानीनी द्रष्टिनो विषय ज पलटी गयो छे.
बाह्य विषय बदलीने अंतरनो चैतन्य विषय जेनी द्रष्टिमां नथी आव्यो तेने बाह्य पदार्थो प्रत्ये द्वेष
अभिप्रायथी त्यागनी भावना वर्ते छे. ते राग अभिप्रायथी तेने ग्रहवानी भावना वर्ते छे. चैतन्यना ग्रहण
वगर पर उपरना रागद्वेषनी बुद्धि अज्ञानीने छूटती ज नथी. एटले तेनो त्याग द्वेषभावपूर्वक ज थाय छे;
वीतराग भाव तेने नथी केमके वीतरागभाव चैतन्यना अवलंबन वगर थाय नहि, ने चैतन्यविषय तो
अज्ञानीनी द्रष्टिमां आव्यो ज नथी. ज्यां अंर्तस्वभावने विषयरूप करीने ज्ञानमां लीधो (ज्ञानस्वभावने ज
ग्रहण कर्यो) त्यां बाह्यविषयोनुं ग्रहण ज न रह्युं एटले बाह्यविषयो प्रत्ये रागद्वेष न रह्या, रागद्वेषनो त्याग
थईने समाधि ज थई. आ रीते स्वविषयनुं ग्रहण ते ज समाधिनो उपाय छे. जेने द्रष्टिनो विषय पलट्यो
नथी (–पर विषय छूटीने स्वविषय जेने द्रष्टिमां आव्यो नथी) तेने कोई रीते समाधि थती नथी; अने
समाधि वगरनो त्याग ते द्वेषभरेलो त्याग छे, केमके तेना अभिप्रायमां आत्मशांति नथी पण बळतरा ज छे.
चैतन्यस्वभावनुं अवलंबन लीधा वगर, बाह्यमां त्याग करवा जाय छे ते तो द्वेषगर्भित छे. ज्ञानीने
अंतरमां चैतन्यस्वभावना अवलंबने वीतरागी शांति जेम जेम वधती जाय छे तेम तेम रागद्वेष छूटता जाय
छे, अज्ञानी चैतन्यनी शांतिमां आव्यो नथी रागद्वेष छूटया नथी ने बाह्य विषयो छोडवा मांगे छे तेथी तेनो
त्याग तो द्वेष–अभिप्रायथी भरेलो छे. स्व–विषयना अवलंबन वगरनो त्याग साचो होय ज नहि.
* * * * *
* ज्ञानीनुं हृदय अने भवसागरनी नौका *
प्रश्न :– ज्ञानीना हृदयकमळमां शुं छे?
उत्तर :– ज्ञानीना हृदयकमळमां परमात्मतत्त्व बिराजे छे.
प्रश्न :– ते परमात्मतत्त्व केवुं छे?
उत्तर :– ते परमात्मतत्त्व भवसागरमां डुबता जीवोने नौका समान छे,
तेना अवलंबने भव्य जीवो भवसागरने तरी जाय छे.