पोष : र४८७ : ९ :
[र४८र असाड सुद छठ्ठ: समाधिशतक गा. ४८]
अंतरात्मा पोताना ज्ञानने आत्मामां ज जोडीने मन–वचन–काया साथेनुं जोडाण छोडे छे, ए रीते
धर्मीने आत्मा सिवाय क्यांय ग्रहणबुद्धि होती नथी; ने अस्थिरताथी जे मन–वचन–काया तरफ जोडाण थाय
तेने पण छोडीने चैतन्यमां ज एकाग्रता करवा मांगे छे, ते वात बतावे छे–
युञ्जीत मनसाऽऽत्मानं वाकायाभ्यां वियोजयेत् ।
मनसा व्यवहारं तु त्यजेद्वाक्काययोजितम् ।। ४८।।
धर्मी अंतरात्मा पोताना मनने एटले के ज्ञानना उपयोगने आत्मा साथे जोडे छे, ने वचन–कायथी
भिन्न करे छे. वचन–कायानी क्रियाओ साथेना मनना जोडाणने ते छोडे छे, ने चिदानंदस्वभावमां ज ज्ञानने
एकाग्र करीने तेनुं ग्रहण करे छे. आमां परद्रव्यने छोडवानी वात नथी पण परद्रव्य तरफनो उपयोग छोडे छे
ने आत्मामां उपयोग जोडे छे. परथी भिन्नता जाण्या वगर परथी उपयोग छूटे नहि, पर द्रव्यथी भिन्न
स्वद्रव्यने जाण्या वगर उपयोग तेमां जोडाय शी रीते? अने स्वरूपमां उपयोग जोडाया वगर समाधि थाय
शी रीते? आ रीते स्व–परना भेदज्ञान वगर कदी समाधि थती नथी. ज्यां शरीर–वाणी वगेरेनुं कर्तृत्व माने
त्यां ते तरफ ज उपयोग जोडाय, पण त्यांथी जुदो पडीने उपयोग स्वमां आवे नहि, ने स्वमां उपयोग
आव्या वगर शांति पण थाय नहीं.
धर्मीए पोताना आत्माने देहादिथी अत्यंत भिन्न जाण्यो छे, तेथी समाधिनी सिद्धि माटे एटले के
आत्मानी परम शांतिना अनुभवने माटे, पोताना उपयोगने देहादि तरफथी पाछो वाळीने स्वरूपमां जोडे छे.
उपयोगने स्वरूपमां जोडवो ते ज परम शांतिदातार अध्यात्मभावना छे. आ शास्त्रमां फरीफरीने तेनो ज
उपदेश कर्यो छे, ने तेनी ज भावना करी छे.
जेटलुं बहिर्मुख वलण जाय तेटलुं दुःख छे, ने अंतर्मुख चैतन्यवेदनमां ज आनंद छे, एम स्व–
संवेदनथी जाणी लीधुं होवाथी धर्मी पोताना उपयोगमां आत्माने ज ग्रहवा मांगे छे. जगतना कोई पण
बाह्यपदार्थ प्रत्ये उपयोग जाय तो तेमां तेने पोतानुं सुख भासतुं नथी, एक निजस्वरूपमां ज सुख भास्युं छे;
आथी पर तरफना व्यापारने छोडीने स्व–तरफ उपयोगने जोडे छे,–एटले के स्वद्रव्यने ज ज्ञानमां ग्रहण करे
छे.–आ धर्मी जीवना ग्रहणत्यागनी विधि छे. आ सिवाय बहारमां कांई ग्रहवा–छोडवानुं नथी. उपयोगमां
ज्यां स्वद्रव्यनुं ग्रहण थयुं त्यां समस्त परद्रव्यो अने परभावो उपयोगथी बहार जुदा ज रही जाय छे, एटले
स्व तरफ वळेलो उपयोग तेमना त्यागस्वरूप ज छे. आ रीते उपयोगनी निजस्वरूपमां सावधानी ते ज
समाधि छे, ते ज मोक्षमार्ग छे, तेमां ग्रहवायोग्यनुं ग्रहण अने छोडवा योग्यनो त्याग थई जाय छे.
आ रीते अंतरात्मानी ग्रहणत्यागनी विधि समजावी. ।। ४८।।
अंतर्मुख थईने धर्मात्माए निजस्वरूपमां ज सुख छे एम अनुभव्युं छे, तेथी ते तेनो ज विश्वास
करीने तेमां रमे छे, निजस्वरूपथी बाह्य कोईपण पदार्थने तेओ विश्वास्य के रम्य (सुखरूप) मानता नथी.
जेने सुखस्वरूप आत्मानुं भान नथी ने देहने ज आत्मा मानी रह्या छे एवा मूढजीवो ज पर पदार्थमां
सुखनी कल्पना करीने तेने रम्य माने छे अने तेनो विश्वास करे छे.–ए वात हवेनी गाथामां कहे छे:–
जगत्देहात्मद्रष्टिनां विश्वास्यं रम्यमेव च ।
स्वात्मन्येवात्मद्रष्टिनां क्व विश्वासः क्व वा रतिः ।। ४९।।
ज्यां सुधी देहमां आत्मबुद्धि छे त्यां सुधी ज जगतना पदार्थो विश्वासनीय अने रम्य लागे छे, एटले के
बहिरात्माने ज जगतना पदार्थोमां सुख भासे छे; परंतु ज्यां पोताना आत्मामां ज आत्मबुद्धि थई त्यां बीजा
शेमां विश्वास होय? के बीजे क््यां रति होय? अंतरात्माने पोताथी बाह्य जगतना कोईपण पदार्थमां सुख
भासतुं नथी एटले तेमां विश्वास के रति नथी थती...चैतन्यस्वरूपनो ज विश्वास करीने तेमां ज ते रमे छे.
जुओ, आ धर्मात्मानुं रम्यस्थान! शांतिनुं लीलुंछम स्थान छोडीने धगधगता वेरान प्रदेशमां कोण
रमे? –तेम बाह्यपदार्थो तो आ आत्माना सुखने माटे वेरानप्रदेश जेवा छे, तेमां क््यांय सुख के शांतिनो
छांटोय नथी, उलटुं ते तरफनी वृत्तिथी तो धगधगता तापनी जेम आकुळता थाय छे. ने चैतन्यप्रदेशमां