: ८ : आत्मधर्म : र०७
छोडवा मांगे छे ते अभिप्राय ज जूठो छे, ने मिथ्या अभिप्राय सहितनो त्याग ते तो द्वेषथी भरेलो छे.
चैतन्यगूफामां प्रवेशीने शांतिना वेदनमां लीन थतां बाह्यपदार्थो प्रत्ये राग–द्वेष–मोहनी वृत्ति ज न
थाय तेनुं नाम त्याग छे; ने ज्यां राग–द्वेष–मोह छूट्या त्यां तेना निमित्तो (वस्त्रादि) पण सहेजे छूटी जाय
छे, तेथी तेनो त्याग कर्यो एम निमित्तथी कहेवाय छे. खरेखर बाह्यपदार्थोने ग्रहवा–छोडवानुं ज्ञानी मानता
नथी, तेने ग्रहण ने त्याग तो अंतरमां पोताना भावनुं ज छे. ते अंतरमां स्वभावने ग्रहीने (श्रद्धा–ज्ञान–
अनुभवमां लईने) रागादिने छोडे छे. जेणे रागथी पार चिदानंद स्वभावने जाण्यो ज नथी ते रागादिने
छोडशे कई रीते? अज्ञानीने आत्मानुं तो भान नथी ने बाह्यपदार्थोने ज देखे छे, एटले बाह्य सन्मुख ज
वर्ततो थको राग–द्वेषथी परपदार्थोने ग्रहवा–छोडवानुं ते माने छे; ते ऊंधी मान्यतामां तो तेने स्वभावनो
त्याग थई जाय छे ने रागादि विभावनुं ग्रहण थई जाय छे.–परनुं ग्रहण त्याग तो तेने पण थतुं नथी.
आ गाथमां त्रण वात बतावी छे.
(१) परमात्माने कांई ग्रहण–त्याग करवानुं कह्युं नथी.
(र) अंतरात्माने पोताना अंर्तभावोमां ज ग्रहण–त्याग छे.
(३) बहिरात्मा बहारमां ग्रहण–त्याग करवानुं माने छे.
(१) परमात्मा तो चिदानंदतत्त्वने समस्त परद्रव्योने परभावोथी भिन्न जाणीने, चैतन्यस्वरूपमां
ज स्थिर थई गया छे, एटले तेमणे ग्रहवायोग्य एवा पोताना ज्ञान–आनंदने ग्रही लीधा छे ने छोडवायोग्य
परभावोने सर्वथा छोडी दीधा छे, तेथी तेओ कृतकृत्य छे, हवे कांई ग्रहवानुं के छोडवानुं तेमने बाकी रह्युं
नथी. आ रीते परमात्मा तो ग्रहण–त्यागथी रहित छे.
(र) अंतरात्माए पोताना चिदानंद स्वरूपने समस्त परद्रव्यो अने परभावोथी भिन्न जाण्युं छे;
पण हजी तेमां पूरी लीनता थई नथी ने रागादि सर्वथा छूट्या नथी, एटले ते अंर्तप्रयत्नवडे शुद्ध ज्ञान
आनंदने ग्रहवा मांगे छे तथा रागादिने छोडवा मांगे छे. बाह्यपदार्थोथी तो पोते जुदो ज छे–एम जाण्युं छे
एटले बहारमां तो कांई ग्रहवा–छोडवानुं ते मानता ज नथी. अंतर्मुख थईने ग्रहवायोग्य एवा शुद्ध
आत्माने ग्रहण करीने (–तेमां एकाग्र थईने) रागादि परभावोने त्यागे छे. आ रीते अंतरात्माने पोताना
भावमां ज ग्रहण–त्याग छे.
(३) बहिरात्मा अंतरना चैतन्यतत्त्वने जाणतो नथी ने बाह्यपदार्थोने ज देखे छे, एटले
बाह्यपदार्थोमां ज ते ईष्ट–अनीष्टपणुं मानीने तेने ग्रहवा–छोडवा मांगे छे. ते जेने ईष्ट माने छे तेना उपर
रागनो अभिप्राय छे, अने जेने अनीष्ट माने छे तेना उपर द्वेषनो अभिप्राय छे. आ रीते, वीतरागी
अभिप्रायना अभावमां तेने परभावोनो त्याग तो नथी, पण रागद्वेषना अभिप्रायथी ते बाह्यपदार्थोना
ग्रहण–त्याग करवानुं माने छे.–एटले कदाच बाह्यमां त्यागी दिगंबर साधु थईने वनमां रहे तोपण तेने
असमाधि ज छे. चैतन्यमां अंतर्मुख थईने मिथ्यात्वादि परभावोने छोड्या वगर कदी समाधि थाय ज नहि.
धर्मात्मा कदाच गृहस्थपणामां होय तोपण चैतन्यमां अंतर्मुख थवाथी मिथ्यात्वादि परभावो जेटले अंशे छूटी
गया छे तेटले अंशे तेमने समाधि ज वर्ते छे, खातां–पीतां, बोलतां–चालतां, जागतां–सूतां, सर्व प्रसंगे
तेटली वीतरागी समाधि–शांति तेने वर्त्या ज करे छे.
बहारना ग्रहण–त्याग उपरथी अंतरना माप थाय तेम नथी. अंर्तद्रष्टिने नहि जाणनारा बाह्यद्रष्टि–
मूढ लोको बाह्य त्याग देखीने छेतराय छे, धर्मात्मानी अंर्तदशाने तेओ ओळखता नथी. बाह्यमां कांई त्याग
न होय, राजपाट ने भोगोपभोगना संयोग वच्चे रह्या होय छतां, धर्मात्मा क्षायिक समकिती होय ने
एकभवतारी होय; अने मिथ्याद्रष्टिजीव मोटा राजपाट ने हजारो राणीओ छोडीने, दिगंबर त्यागी साधु
थईने वनमां रहेतो होय...छतां अनंत संसारी होय! बहारथी जोनारा मूढ जीवो कई आंखे आनुं माप
काढशे? कई रीते तेने ओळखशे? ते तो बाह्यद्रष्टिनी मूढताने लीधे, बाह्यत्याग देखीने अनंतसंसारीने पण
मोटो धर्मात्मा मानी लेशे, ने एकावतारी धर्मात्माने ते ओळखशे नहि. अंतरनो अभिप्राय ओळख्या वगर
धर्मी–अधर्मीनी साची ओळखाण थाय नहि. ।। ४७।।