पोष : र४८७ : ७ :
– परम शांति दातारी –
अध्यत्म भवन
भगवान श्री पूज्यपादस्वामीरचित ‘समाधि शतक’ उपर पू. गुरुदेवना
अध्यात्म भावना भरपूर वैराग्यप्रेरक प्रवचनोनो सार
वीर सं. र४८र अषाड सुद पांचम गा. ४७ चालु
आ समाधिअधिकार छे एटले के आत्माने समाधि केम थाय, शांति केम थाय तेनी वात चाले छे.
तेमां केवा ग्रहण–त्यागथी समाधि थाय ते कहे छे.
* जेओ चैतन्यस्वभावने जाणीने परिपूर्ण ज्ञान ने आनंदस्वरूप परमात्मा थई गया तेमणे तो
ग्रहवा योग्य एवुं पोतानुं शुद्धस्वरूप ग्रही लीधुं ने त्यागवा योग्य एवा मोह–राग–द्वेष छोडी दीधा, एटले
तेमने हवे कांई ग्रहवानुं के छोडवानुं रह्युं नथी, तेमने तो पूर्ण समाधि ज छे.
* जे अंतरात्मा छे तेणे शरीरादि समस्त पदार्थोथी पोताना चैतन्यस्वरूप आत्माने भिन्न जाण्यो छे
एटले परमां तो कोईनुं ग्रहण के त्याग करवानुं ते मानता नथी; पोताना ज्ञानानंदस्वरूपने ज उपादेय जाण्युं
छे ने परभावोने हेय जाण्या छे, तेथी चैतन्यस्वभावनुं ज ग्रहण करीने (–तेमां लीनता करीने) परभावोने
ते छोडता जाय छे; अने तेमने समाधि थती जाय छे.
* अने मिथ्याद्रष्टि बहिरात्मा तो बाह्य पदार्थो साथे पोताने एकमेक माने छे, परपदार्थोने ईष्ट–
अनीष्ट माने छे, एटले ते अनुकूळ परपदार्थो उपर राग करीने तेने ग्रहवा मांगे छे, ने प्रतिकूळ परपदार्थो
उपर द्वेष करीने तेने छोडवा मांगे छे. आ रीते मिथ्याद्रष्टिजीव राग–द्वेषथी परने ग्रहवा–छोडवानुं माने छे.
आ रीते मिथ्याअभिप्रायने लीधे तेनो त्याग पण द्वेषगर्भित छे; तेने समाधि थती नथी पण असमाधिज
रहे छे.
घर के गूफा, महेल के जंगल ते बधाय आत्माथी भिन्न परद्रव्य छे; छतां अज्ञानी बाह्यद्रष्टिथी एम
माने छे के घर छोडुं अने गूफामां जाउं–तो शांति थाय; पण अरे भाई! गूफामां शांति छे के आत्मामां छे?
मकान तने अनीष्ट छे, के तारो मोह अनीष्ट छे? मोहने तो छोडतो नथी ने मकानने अनीष्ट मानीने