Atmadharma magazine - Ank 207
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: : आत्मधर्म : २०७
अहा, आत्माने बंधनथी मुक्त करवो ए ज मारुं कर्तव्य छे, शुद्धआत्माने प्राप्त करवो ए ज एक मारुं
कर्तव्य छे–एम जेने तीव्र झंखना जागी होय, ने संतो पासेथी भेदज्ञाननो आवो उपदेश मळे, ते जीव
भेदज्ञाननो पुरुषार्थ कर्या वगर केम रहे?–ने आवो मोक्षार्थीजीव बंधना एक कणियाने पण पोताना
स्वरूपमां केम राखे?–न ज राखे. ने भेदज्ञानना कार्यमां ते प्रमाद पण केम करे?–न ज करे. जेम वीजळीना
झबकारे सोय परोववी होय त्यां प्रमाद केम पालवे? तेम अनंतकाळना संसारभ्रमणमां वीजळीना झबकारा
जेवो आ संसारभ्रमणमां वीजळीना झबकारा जेवो आ मनुष्यअवतार, तेमां चैतन्यमां भेदज्ञानरूपी दोरो
परोववा माटे आत्मानी घणी जागृती जोईए. भाई! अनंतकाळे आ चैतन्य भगवानने ओळखवाना ने
मोक्षने साधवाना टाणां आव्या छे, क्षण क्षण लाखेणी जाय छे, आत्मभान वगर उगरवानो कोई आरो
नथी; माटे सर्व उद्यमथी तारा आत्माने भेदज्ञानमां जोड...शूरवीरताथी प्रज्ञाछीणीवडे तारा आत्माना
बंधभावने छेदी नांख. प्रज्ञाछीणी ते बंधने छेदवानुं अमोघशस्त्र छे. प्रज्ञाछीणीने सावधान थईने पटकतां,
एटले के जगतनी अनुकूळतामां अटक्या वगर ने जगतनी प्रतिकूळताथी डर्या वगर ज्ञानने अंतरमां स्व
तरफ वाळतां बंधन बहार रही जाय छे एटले आत्मा बंधनथी छूटी जाय छे. आ रीते बंधनने छेदीने मोक्ष
पामवानुं साधन भगवती प्रज्ञा ज छे.
(समयसार कलश १८१ ना प्रवचनमांथी)
आ.रा.ध.ना
“सत्संगनुं एटले सत्पुरुषनुं ओळखाण थये पण ते योग निरंतर रहेतो न होय तो,
सत्संगथी प्राप्त थयो छे एवो जे उपदेश ते प्रत्यक्ष सत्पुरुष तुल्य जाणी विचारवो तथा
आराधवो, के जे आराधनाथी जीवने अपूर्व एवुं सम्यक्त्व उत्पन्न थाय छे.” (‘ज्ञानीना
मार्गना आशयने उपदेशनारां वाक््यो’ मांथी)
– श्रीमद् राजचंद्र: वर्ष र८ मुं.
आत्मकल्याणनो निश्चय
‘ज्ञानीना मार्गना आशयने उपदेशनारां वाक््यो’ मां आत्मकल्याणनी तीव्र प्रेरणा
आपतां श्रीमद् राजचंद्रजी केटलुं सरस लखे छे! –
“जीवे मुख्यमां मुख्य अने अवश्यमां अवश्य एवो निश्चय राखवो के जे कांई
मारे करवुं छे ते आत्माने कल्याण रूप थाय ते ज करवुं छे.” (वर्ष र८ मुं)