आखा जगत तरफथी पाछो वळीने चैतन्य तरफ वळवाना उद्यमवडे, अत्यंत जागृतीपूर्वक, आत्मा अने
बंधनी संधिनी वच्चे प्रज्ञाछीणी पटकीने मुमुक्षु जीव तेमने जुदा पाडी नांखे छे.–बंनेने जुदा पाडवा माटे
बेनो आश्रय नथी, आश्रय तो एक आत्मानो ज छे; ‘प्रज्ञा’ ज्यां आत्मा तरफ वळीने एकाग्र थई त्यां
बंधथी ते जुदी पडी ज गई; ज्ञान–परिणति अने आत्मानी एकता थई तेमां राग न आव्यो,–तेमां बंधभाव
न आव्यो, ए रीते बंध जुदो ज रही गयो, ने आत्मा बंधनथी छूटी गयो. आ रीते भगवती प्रज्ञा बंधने
छेदीने आत्माने मुक्ति पमाडे छे.
पडीने अंतरमां वळ. रागथी जुदो पडीने जे अंतरमां वळ्यो तेणे आत्मा अने बंध वच्चे प्रज्ञाछीणीने पटकी.
प्रवीण पुरुषो वडे सावधानीथी पटकवामां आवेली आ प्रज्ञाछीणी केवी रीते पडे छे?–शीघ्र पडे छे,–तत्क्षण ज
आत्मा अने बंधनुं भेदज्ञान करती पडे छे; जेवुं ज्ञान अंतरमां वळ्युं के तरत ज बंधने छेदीने आत्माथी जुदो
पाडी नांखे छे. जुओ, आ बंधने छेदवानी छीणी! आ प्रज्ञाछीणी ज मोक्षनुं साधन छे.
अंशने पण आत्मामां भेळवती नथी. आ रीते बंधने सर्व प्रकारे छेदीने आत्माने मोक्ष पमाडनारी आ
‘प्रज्ञा’ ने आचार्यदेवे ‘भगवती’ कहीने तेनो महिमा कर्यो छे.
छोडी दईने पण, आ भगवती प्रज्ञाने अंतरमां पटकीने बंधने छेदी नांख! ‘कोईपण रीते’–एम कहीने कर्म
वगेरे नडशे–ए वात उडाडी दीधी. कोई कहे–कर्म नडे तो?–तो आचार्यदेव कहे छे के अरे जीव! तुं एकवार
प्रज्ञाछीणीने हाथमां तो ले...प्रज्ञाछीणी हाथमां लेतां ज (–एटले के ज्ञानने अंतर्मुख करतां ज) कर्म तो क््यांय
बहार रही जशे ने छेदाई जशे. अहीं तो कहे छे के ‘कर्म नडशे...’ एम याद करे ते खरो मोक्षार्थी नहि, खरो
मोक्षार्थी तो उद्यमपूर्वक प्रज्ञाछीणी वडे भेदज्ञान करीने आत्मा अने बंधने अत्यंत जुदा करी नांखे छे.