Atmadharma magazine - Ank 207
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १० : आत्मधर्म : २०७
रमतां परम शांति वेदाय छे. तो पछी आवा शांत रम्य चैतन्यप्रदेशने छोडीने उज्जड वेरान एवा परद्रव्यमां
कोण रमे?–तेने रम्य कोण माने? धर्मी तो न ज माने. जेणे शांतिधाम एवो रम्य आत्मप्रदेश जोयो नथी
एवा मूढ जीवो ज परद्रव्यमां सुख कल्पीने तेने रम्य समजे छे.
‘जगतमां जे पदार्थो दुःखदायक छे ते भले रम्य न हो, परंतु जे सुखदायक छे एवा स्त्री–पुत्र–लक्ष्मी
वगेरेने तो रम्य कहो?–एम कोई अज्ञानीने प्रश्न ऊठे तो तेनुं आ गाथामां समाधान कर्युं छे. अरे मूढ!
बाह्य पदार्थो तने सुखरूप रम्य लागे छे ते तारी बाह्यद्रष्टि अने देहद्रष्टिने लीधे ज लागे छे, खरेखर पोताना
आत्मा सिवाय बीजुं कोई सुखरूप के रम्य नथी.
जेने देहमां आत्मबुद्धि छे तेने संयोगमां सुखबुद्धि छे, ने तेने आखुं जगत विश्वासयोग्य तथा रम्य
लागे छे. ज्ञानी तो पोताना आत्माने जगतथी जुदो जाणीने आत्माने ज विश्वासयोग्य तथा रम्य जाणे छे.
पोताना चैतन्यतत्त्वमां ज जेनी द्रष्टि छे तेने बहारमां कोनो विश्वास? ने कोनो प्रेम? बहारना कोई
पदार्थोमां मारुं सुख छे एवो विश्वास ज्ञानी करता नथी. अज्ञानी परचीजने पोताना सुखनुं कारण मानीने
तेनो विश्वास अने प्रीति करे छे, पण आत्मामां सुख छे तेनो विश्वास के प्रीति ते करतो नथी. ज्ञानीने
चैतन्यना अतीन्द्रिय सुखनुं वेदन थयुं छे, एटले तेनो ज विश्वास अने तेनी ज प्रीति छे. जगतमां क्यांय
परमां मारुं सुख छे ज नहि एवुं भान छे तेथी परमां क्यांय सुखबुद्धिथी आसक्ति थती नथी. आ रीते
आत्मानी ज रति होवाथी ज्ञानी पोताना आत्मज्ञान सिवाय बीजुं कार्य अधिककाळ धारण करता नथी–ए
वात हवेनी गाथामां कहेशे.
विश्वासयोग्य एटले श्रद्धा करवायोग्य, अने रम्य एटले रमवायोग्य–लीन थवा योग्य; ज्ञानी तो आत्मामां
ज सुख जाणीने तेनी ज श्रद्धा अने लीनता करे छे; अज्ञानी परमां सुख मानीने तेनी ज श्रद्धा ने लीनता करे छे,
एटले तेने जगतना बाह्य विषयो सुखकर अने प्रिय लागे छे, आत्मा तेने प्रिय लागतो नथी. ज्ञानीने आत्मा ज
प्रिय लागे छे, आत्मा सिवाय बीजुं कांई तेने प्रिय लागतुं नथी.–‘जगत ईष्ट नहि आत्मथी.’
आत्माना स्वभाव सिवाय बहार लक्ष जईने जे शुभ वृत्ति ऊठे, ते शुभवृत्तिनो जेने प्रेम छे तेने
पण जगतना बाह्य विषयोनो प्रेम छे, आत्माना स्वभावनो प्रेम नथी. द्रव्यलिंगी मुनि थईने जे एम
मानतो होय के अठ्ठावीस मूळगुण वगेरे शुभ विकल्पो मने मोक्षनुं कारण थशे,–तो तेने रागनो ज विश्वास
छे, पण मुक्तिदातार एवो जे पोतानो वीतरागी आत्मा तेनो विश्वास तेने नथी. बाह्यपदार्थोना विश्वासे ते
ठगाई जशे; केमके जे बाह्य पदार्थोना आधारे ते सुख माने छे ते बाह्यपदार्थो तो क्षणमां खसी जशे. माटे
बाह्य विषयोमां जे सुख माने छे ते जरूर ठगाय छे–छेतराय छे. अने ज्ञानी तो चिदानंद स्वभावमां ज सुख
मानीने तेनी ज श्रद्धा अने तेमां रमणता करे छे, ते कदी छेतराता नथी, केमके पोतानो आत्मा कदी दगो देतो
नथी–तेनो कदी वियोग थतो नथी. संयोग तो दगो दईने क्षणमां छूटा पडी जाय छे. तेथी संयोगना विश्वासे
जे सुखी थवा मांगे छे ते जरूर छेतराय छे. आ शरीर ने आ अनुकूळ संयोगो जाणे सदाय आवा ने आवा
रह्या करशे एम तेनो विश्वास करीने अज्ञानी तेमां सुख माने छे, पण ज्यां संयोगो पलटी जाय ने
प्रतिकूळता थई जाय त्यां जाणे के मारुं सुख चाल्युं गयुं! एम ते छेतराय छे. पण अरे भाई! अनुकूळ
संयोग वखते पण तेमां कांई मारुं सुख न हतुं, तुं तेमां सुख मानीने छेतरायो. ज्ञानी तो जाणे छे के
संयोगनो शो विश्वास? तेमां क््यांय सुख देखातुं ज नथी. ज्ञानीनी नजर एक आत्मा उपर ज ठरे छे. बीजे
क््यांय जगतमां तेनी नजर ठरती नथी. राग उपर पण तेनी द्रष्टि ठरती नथी. एक आतमराममांज तेनी
नजर ठरे छे. अहो! मारो आत्मा एक ज मारा सुखनुं धाम छे, ते सिवाय जगतनुं कोई तत्त्व मारा सुखनुं
धाम नथी, तो ते पर द्रव्योनो शो विश्वास? ने तेमां केवी रति? मारो आत्मा ज मारुं आनंदनुं धाम छे–एम
ज्ञानीनी श्रद्धानो विषय पोतानो आत्मा ज छे.
ज्ञानी पोताना आत्मानो विश्वास करे छे.
अज्ञानी बाह्य संयोगनो विश्वास करे छे.