व्यवहारनो निषेध करीने शुद्ध स्वभावना आश्रये मोक्षमार्गने साधे छे. अहा, आचार्यदेवे मोक्षने साधवा
माटे महा सिद्धांत बताव्यो छे के, मोक्षार्थीए जेम परमां एकत्वबुद्धिथी थतुं मिथ्यात्व छोडवा योग्य छे तेम परना
आश्रयथी थतो राग पण छोडवा योग्य ज छे. मोक्षने माटे शुद्धआत्मानो एकनो ज आश्रय करवा योग््य छे.
आत्माने भूलीने, परमां एकत्वबुद्धिथी थतो जे मिथ्या अध्यवसाय ते बंधनुं कारण छे, एटले मोक्षार्थीए
ते छोडवा जेवो छे–एम भगवाननो उपदेश छे. आचार्यदेव कहे छे के, पर साथे एकतारूप अध्यवसाय
भगवाने छोडाव्यो छे ते उपदेशमांथी अमे एवुं तात्पर्य काढीए छीए के परना आश्रये थतो सघळोय
व्यवहारज भगवाने छोडाव्यो छे, केम के ते बंधनुं ज कारण छे. मोक्षनुं कारण तो अबंध स्वभावनो
आश्रय करवो ते ज छे.
द्रव्यना आश्रये थतां पराश्रितभावोमां पण समकित नथी. समकिती तो शुद्ध आत्माना आश्रये थता
सम्यक्त्वादि निर्मळभावोमां छे. पर द्रव्यने अने परभावो तो तेणे पोताना स्वभावथी जुदा जाण्या छे तो
तेमां समकिती केम होय? रागना के परना स्वामीपणे समकितीने ओळखे तो तेणे खरेखर समकितीने
ओळख्या ज नथी.
स्वद्रव्यनो आश्रय छे?–ना; जेम परने कारणे स्व नथी तेम पराश्रयने कारणे स्वाश्रय नथी, एटले
व्यवहारने कारणे निश्चय नथी. समकिती जाणे छे के–जेम परद्रव्यथी मारो आत्मा जुदो छे तेम पराश्रित एवा
रागादि भावोथी पण मारो आत्मा जुदो ज छे.–आ रीते समकिती–धर्मात्मा व्यवहारथी मुक्त छे, छूटो छे.
स्वाश्रये जे साधकभाव थयो छे–निर्मळभाव थयो छे ते तो व्यवहारना पराश्रयभावथी (–बाधकभावथी)
जुदो ज वर्ते छे. स्वाश्रयभावनी धारा निर्मळपणे मोक्षमार्गे चाली जाय छे, ने जेटलो पराश्रित भाव छे ते
बधोय सम्यग्द्रष्टिना विषयथी बहार छे. पराश्रये थतो भाव तो बंधनुं कारण होवाथी बाधक छे. ते
बाधकभावमां जे एकपणे वर्ते ते जीव मोक्षनो साधक केम होय? अने जे मोक्षनो साधक होय ते तेमां (–
बाधकभावमां) एकपणे केम वर्ते?– माटे मोक्षना साधक ज्ञानीधर्मात्मा पराश्रित व्यवहारथी मुक्त ज छे,
एटले शुद्ध स्वभावना आश्रय वडे ते व्यवहारने छोडीने मुक्ति पामे छे. आ ज मोक्षने साधवानी
समकितीनी कळा छे. आवी कळा द्वारा ज समकितीनी खरी ओळखाण थाय छे.