पोष : र४८७ : १प :
आत्मानुं अकर्तापणुं क्यारे अने कई रीते?
अर्हंतदेवनो उपासक अने मोक्षनो साधक केवो होय?
[समयसार गाथा र३र थी र४४ ना प्रवचनमांथी: मागसर पूर्णिमा]
आत्मा चैतन्यप्रकाशस्वरूप छे.
ते चैतन्यप्रकाशी–आत्मा पदार्थोने जाणे छे पण करतो नथी.
जेनी द्रष्टिमां आवो चैतन्यप्रकाशी आत्मा आव्यो ते जीव चैतन्यथी बाह्य एवा रागादि परभावोनो
कर्ता के भोक्ता थतो नथी, पण चैतन्यना आनंदने ज अनुभवे छे.
आ रीते, चैतन्यप्रकाशी आत्मा स्वभावथी विकारनो कर्ता–भोक्ता न होवा छतां, ते कांई सर्वथा
अकर्ता ज नथी, कथंचित् कर्ता पण छे;
कथंचित् कर्तापणुं ए रीते छे के–
–ज्ञानभावे ते पोतानी ज्ञान–आनंद दशानो ज कर्ताभोक्ता छे, अने
–अज्ञानदशामां ते पोताना राग के हर्षादिनो कर्ताभोक्ता पोते ज छे.
कोई अज्ञानी जीव पोताना ज्ञानस्वभावनी सन्मुख थईने निर्मळज्ञानभावरूपे तो परिणमतो नथी,
रागथी जुदो तो पडतो नथी, रागमां तन्मयपणे ज परिणमे छे, अने छतां एम कहे छे के मारो आत्मा
रागनो अकर्ता ज छे, ने कर्म ज राग करावे छे.–तो एवा जीवने आचार्यदेव युक्तिथी वस्तुस्थिति समजावे छे
के :–
हे भाई, तुं निर्मळ ज्ञानभावने पण करतो नथी, अने राग थाय तेनुं कर्तृत्व पण तुं स्वीकारतो नथी,
तो तारा आत्मामां कोई प्रकारे कर्तापणुं रह्युं ज नहीं! सर्वथा अकर्तापणानी तारी मान्यता थई,–तो तो
अनेकान्तमयश्रुतिनो (–जिनवाणीनो) तारा उपर कोप थयो, अर्थात् तारी मान्यता जिनवाणीथी विरुद्ध
थई, –एटले श्रुतिनी तारा उपर प्रसन्नता न थई, तारुं श्रुतज्ञान सम्यक् न थयुं पण कुश्रुत थयुं.
भाई, तुं एम समज के आत्मा कोई पर्यायने तो जरूर करे. हवे जे जीव ज्ञानपर्यायने न करे ते
अज्ञानभावे रागादिने करे.
जे जीव ज्ञानपर्यायने करे ते रागादिनो अकर्ता थाय. अमे जे अकर्तापणुं उपदेश्युं ते तो ज्ञान
स्वभावनी सन्मुख थई, रागथी भेदज्ञान करी, वीतरागी–विशुद्ध ज्ञानभाव प्रगट करवा माटे ज उपदेश्युं हतुं.
आत्मा रागनो अकर्ता, ज्ञान–