: १६ : आत्मधर्म : २०७
स्वरूप छे एम समजनार जीव ज्ञानसन्मुख थई, रागथी जुदो पडी पर्यायमां पण रागनो अकर्ता थाय छे.
पण जे जीव ज्ञानसन्मुख थतो नथी, रागमां ज तन्मय रहे छे. ते कांई रागनो अकर्ता नथी, ते तो
अज्ञानभावथी रागनो कर्ता ज छे. रागमां तन्मय पण रहे, अने कहे के रागनो कर्ता मारो आत्मा नथी पण
कर्म तेनो कर्ता छे–तो ते जीव श्रुतिने समज्यो ज नथी, जिनवाणीनी तेने खबर नथी. जिनवाणी तो कहे छे
के आत्मा कथंचित् कर्ता छे.
अहीं शिष्य दलील करे छे के प्रभो! जिनवाणी आत्माने कथंचित् कर्ता कहे छे ते अमने मान्य छे, कई
रीते? के आत्मा पोते पोताने करे छे. ने रागने करतो नथी; राग तो पुद्गलनुं कार्य छे.
तो आचार्यदेव तेने कहे छे के अरे मूढ! तारो आत्मा कया आत्माने करे छे? शुं त्रिकाळी आत्माने
करे छे? त्रिकाळी नित्य आत्मा तो कांई नवो थतो नथी, के जेनो कोई कर्ता होय! वळी आत्माना
असंख्यप्रदेशो पण त्रिकाळ एवा ने एवा शाश्वत छे, ते प्रदेशोमां पण कांई करवापणुं नथी. हवे त्रिकाळी
ज्ञानादि गुणोरूप जे भाव छे तेमां पण कांई करवापणुं नथी; हवे बाकी रही वर्तमानपर्याय. सामान्यमां
करवापणुं होय नहि, करवापणुं विशेषमां (–पर्यायमां) होय; हवे पर्यायमां मिथ्यात्वादि भावो होवा
छतां तुं तेनुं कर्तापणुं तो मानतो नथी, ने कर्म ज तेनुं कर्ता छे–एम तुं कहे छे, तो तारा आत्मामां कोई
प्रकारनुं कर्तापणुं रह्युं ज नहीं; कर्तापणा वगर आत्मा ज न रह्यो; एटले हे मूढ! कर्म मने मिथ्यात्वादि
करावे छे’ एवी तारी मान्यतामां तो तुं आत्मघाती थयो, तारा आत्मानो ज तें घात कर्यो, आत्महिंसा
ए ज जीवहिंसानुं मोटुं पाप छे.
–तो शुं करवुं? के हे भाई! अज्ञानदशामां जे मिथ्यात्वादिभावो छे तेनो कर्ता अज्ञानभावे तारो
आत्मा ज छे, एम तुं समज; पण विशुद्धज्ञानस्वभावमां तेनुं कर्तृत्व नथी एम समजीने ते स्वभावनी
सन्मुख था, एटले पर्यायमां पण मिथ्यात्वादिनुं अकर्तापणुं थई जशे–मिथ्यात्व रहेशे ज नही सम्यग्दर्शनादि
निर्मळभावो प्रगट थतां तेमां रागनुं पण अकर्तापणुं थशे.
भाई! रागमां तन्मय रहीने रागनुं अकर्तापणुं केम थाय?–न ज थाय. रागथी जुदो पडीने
ज्ञानधाममां आव...तो रागनो अकर्ता था.
जे जीव आ रीते ज्ञानधाममां आव्यो ने रागनो अकर्ता थयो, ते वीतराग अर्हत्देवनो खरो
अनुयायी थयो अने ते जीव पोते रागनो अकर्ता रहीने बीजा अज्ञानी जीवोमां रागनुं कर्तृत्व छे तेने जाणे
छे, पण जडकर्म रागादि करावे छे एम मानता नथी.
आ रीते
* ज्ञानदशामां शुद्धज्ञानभावनो कर्ता,
विकारनो अकर्ता;
* अज्ञानदशामां विकारनो कर्ता
ने परनो तो अकर्ता
* ज्ञानभावे के अज्ञानभावे पण आत्मा परनो तो अकर्ता ज छे अने पर–जडकर्म पण
जीवना भावनुं अकर्ता ज छे.
– आवो अर्हंतदेवनो मत जे जीव जाणे छे ते जीव परथी पृथकपणुं जाणी, विभावथी पण विमुख
थई, ज्ञानस्वधाममां आवीने सम्यग्दर्शनादि निर्मळपर्यायने ज करतो थको, मिथ्यात्वादिनो अकर्ता ज रहे छे.–
ते ज खरो अर्हंतनो उपासक अने मोक्षनो साधक छे.
*