Atmadharma magazine - Ank 208
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 11 of 21

background image
: १० : आत्मधर्म : २०८
मुज कारज के कारण सु आप
शिव करहु हरहु मम मोहताप ।।
आचार्य कुंदकुंदे पण आ भावने प्रगट करतां समय प्राभृतमां कह्युं छे के–
सुद्धो सुद्धादेसोणायव्वो परमभाव दरिसीहिं ।
ववहारदेसिदा पुण जे हु अपरमे ट्ठिदा भावें।। १२।।
अर्थ :– जे शुद्धनय सुधी पहोंचीने श्रद्धानी साथे पूर्ण ज्ञान अने चारित्रवान थई गया छे तेने तो
शुद्ध (आत्मा) नो उपदेश करवावाळो शुद्ध नय जाणवा योग्य अने जे अपरम भावमां अर्थात् श्रद्धा, ज्ञान
अने चारित्रना पूर्ण भावने न पहोंचीने साधक अवस्थामां ज स्थित छे, तेओ व्यवहार द्वारा उपदेश करवा
योग्य छे. ।। १२।।
आशय ए छे के जे अभेद रत्नत्रयरूप अवस्थाने प्राप्त थई गया छे तेमने पुद्गल संयोगना
निमित्तथी थवावाळी अनेक रूपताने कहेवावाळो व्यवहारनय कांई मतलबनो नथी; परंतु एटलुं अवश्य छे
के अशुद्धनयनुं कथन यथापदवी विकल्प दशामां ज्ञान कराववाने माटे प्रयोजनवान छे.
तात्पर्य ए छे के अनुत्कृष्ट (मध्यम) भावनो जे अनुभव करे छे ते साधक जीवने परिपूर्ण शुद्धनय
(केवळज्ञान) नी प्राप्ति न थाय त्यां सुधी श्रद्धामां स्वभावद्रष्टिनी ज मुख्यता रहे छे. ते भूलथी पण
व्यवहार द्रष्टिने उपादेय नथी मानतो.
व्यवहार धर्मरूप प्रवृत्ति थवी ते एक वात छे. अने व्यवहार धर्मने आत्मकार्य के मोक्षमार्ग
मानवो ते अन्य वात छे.
सम्यग्द्रष्टि मोक्षमार्ग तो स्वभावद्रष्टिनी प्राप्ति अने तेमां स्थितिने ज समजे छे. जो तेनी ते
द्रष्टि न रहे तो ते सम्यग्द्रष्टि ज नथी होई शकतो. मोक्षमार्गमां व्यवहार द्रष्टि आश्रय करवा योग्य
नथी एम जे कहेवामां आव्युं छे तेनुं एज कारण छे.
आ वात थोडी विचित्र तो लागे छे के स्वभावद्रष्टिना सद्भावमां सम्यग्द्रष्टिनी प्रवृत्ति प्राथमिक
अवस्थामां रागरूप थती रहे छे परंतु तेमां विचित्रतानी कोई वात नथी केमके जेम कोई विद्यार्थीने भणवानुं
लक्ष्य होवा छतां पण ते सुवे छे, खाय छे, हरे–फरे छे अने मनोविनोदनां अन्य कार्य पण करे छे; तो पण ते
पोताना लक्ष्यथी च्युत थतो नथी. तेम सम्यग्द्रष्टि जीव पण मोक्षना उपायभूत स्वभावद्रष्टिने ज पोतानुं
लक्ष्य बनावे छे. कदाचित् तेने रागना आश्रये साचादेव, गुरु अने शास्त्रनी उपासनानो भाव थाय छे,
कदाचित् धर्मोपदेश देवानो अने सांभळवानो भाव थाय छे, कदाचित् आजीविकानां साधन मेळववानो भाव
थाय छे अने कदाचित् तेनी अन्य भोजनादि कार्योमां पण रुचि थाय छे, तो पण ते पोताना लक्ष्यथी च्युत
थई अन्य कार्योने ज उपादेय मानवा लागे तो जेवी रीते लक्ष्यथी च्युत थयेलो विद्यार्थी कदी पण विद्यानी
प्राप्ति करवामां सफळ नथी थतो तेवी रीते मोक्षप्राप्तिना उपायभूत स्वभावद्रष्टिथी च्युत थयेलो सम्यग्द्रष्टि
कदी पण मोक्षरूप आत्मकार्यने साधवामां सफळ थतो नथी.
त्यारे तो जेवी रीते विद्या प्राप्तिरूप लक्ष्यथी भ्रष्ट थयेलो विद्यार्थी, विद्यार्थी नथी रहेतो तेवी रीते मोक्ष
प्राप्तिना उपायभूत स्वभावद्रष्टिथी भ्रष्ट थयेलो सम्यग्द्रष्टि, सम्यग्द्रष्टि ज नथी रहेतो.
तेथी आ विषयमां एम समजवुं जोईए के सम्यग्द्रष्टिने व्यवहारनय ज्ञान करवा माटे यथापदवी
प्रयोजनवान होवा छतां पण ते मोक्षमार्गनी सिद्धिमां रंचमात्र पण आश्रय करवा योग्य नथी.
आचार्योए ज्यां ज्यां व्यवहार द्रष्टिने बंधमार्ग अने स्वभावद्रष्टिने मोक्षमार्ग कह्यो छे त्यां त्यां ते
आ अभिप्रायथी कहेल छे.
आनो कोई एवो अर्थ करे के आ प्रकारे तो व्यवहारद्रष्टि बंधमार्ग सिद्ध थई जवाथी, सम्यग्द्रष्टिने
देवपूजा, गुरुपास्ति, दान अने उपदेश आदि देवानो