महा : २४८७ : ११ :
भाव ज न होवा जोईए तथा तेने व्यवहार धर्मरूप प्रवृत्ति ज न होवी जोईए. तो तेनो तेवो अर्थ करवो
व्याजबी नथी, केमके सम्यग्द्रष्टिने स्वभाव द्रष्टि होवा छतां पण रागरूप प्रवृत्ति होती ज नथी एम तो कही
शकातुं नथी; कारण के ज्यां सुधी तेने रागांश विद्यमान छे त्यां सुधी तेने रागरूप प्रवृत्ति पण थती रहे छे
अने ज्यां सुधी तेने रागरूप प्रवृत्ति थती रहे छे त्यां सुधी तेना फळ स्वरूपे देवपूजादि व्यवहार धर्मनो
उपदेश देवानो भाव पण थतो रहे छे; अने ते रूपे आचरण करवानो भाव पण थतो रहे छे: तो पण ते
पोतानी श्रद्धामां तेने मोक्षमार्ग मानतो नथी. तेथी तेनो कर्ता थतो नथी. आगममां सम्यग्द्रष्टिने अबंधक
कह्यो छे. ते आ स्वभाव द्रष्टिनी अपेक्षाए ज कह्यो छे, रागरूप व्यवहार धर्मनी अपेक्षाए नहीं.
सम्यग्द्रष्टि एक ज काळमां बंधक पण छे अबंधक पण छे, ए विषयने स्वयं आगममां स्पष्ट करवामां
आव्यो छे”
३०. उपरना अवतरणनो सूक्ष्म अभ्यास करवाथी दरेक जिज्ञासुने समयसारनी १र मी गाथानो
साचो अर्थ शुं छे ते बराबर ख्यालमां आवी जाय तेम छे.
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३१. वळी आ समयसारनी गाथानी टीकामां एक उद्धृत श्लोक आपवामां आव्यो छे. तेनो पण
घणा जीवो पोतानी प्रज्ञाना दोषथी वारंवार खोटो अर्थ करे छे. पंडित श्री फुलचंद्रजी साहेबे ते संबंधी जे
स्पष्ट अने निस्तुष युक्तिथी जे यथार्थ अर्थ कर्यो छे ते उपयोगी होई अहीं आपवामां आवे छे.
३र. तेओए ते ज शास्त्रना पा. २१६ थी २१७ सुधीमां जे लख्युं छे ते नीचे मुजब छे–
अहीं कोई प्रश्न करे छे के मोक्षमार्गमां निश्चयनय द्वारा जो व्यवहारनय सर्वथा प्रतिषिद्ध छे तो
साधकने व्यवहार धर्मनी प्रवृत्ति केवी रीते बनी शकशे अने तेने व्यवहार धर्मनी प्रवृत्ति थती ज नथी एम
कहेवुं उचित नथी, केमके गुणस्थानोनी भूमिका अनुसार तेने व्यवहार धर्म होय ज छे. बन्ने नयोनी
उपयोगिताने ध्यानमां राखीने एक गाथा उद्धृत करी (आधार तरीके लईने) आचार्य अमृतचंद्र पण
समयसारनी टीकामां (गा. १र नी टीकामां) कहे छे के–
जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार–णिच्छए मुयह ।
एगेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं ।।
जो तमे जैनधर्मनुं प्रवर्तन करवा चाहता हो व्यवहार अने निश्चय ए बन्ने नयोने न छोडो, केमके एक
(व्यवहार नय) विना तो तीर्थनो नाश थई जशे अने बीजा (निश्चय नय) विना तत्त्वनो नाश थई जशे.
[प्रश्न–पूरो थयो.]
समाधान ए छे के–साधकने पोत पोताना गुणस्थान अनुसार व्यवहार धर्म होय छे तेमां संदेह नथी
पण एक तो ते बंधपर्याय रूप होवाने कारणे साधकनी तेमां सदाकाळ हेय बुद्धि रह्या करे छे. बीजुं ते
रागनो कर्ता न होवाथी श्रद्धामां तेने आश्रय करवा योग्य मानतो नथी. साधक श्रद्धामां तो निश्चयनयने ज
आश्रय करवा योग्य माने छे, परंतु ते जे भूमिकामां स्थित (रहेलो) छे तेने अनुसार वर्तन करतो थको ते
काळमां व्यवहार धर्मने जाणवुं पण व्यवहारनयथी प्रयोजनवान गणे छे. आ आशयने ध्यानमां राखीने
आचार्य अमृतचंद्रे आ वचन कह्यां छे:–
व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्या–
मिह निहितपदानां हंत हस्तावलम्बः ।
तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं
परविरहितमन्तः पश्यतां नैष किंचित् ।।
अर्थ: जेओए साधकदशानी आ पहेली पदवीमां (शुद्धस्वरूपनी प्राप्ति होवानी पहेली अवस्थामां)
पोतानो पग राख्यो छे तेने जो के व्यवहारनय भले ज हस्तावलंबन होय तो पण जे पुरुष परद्रव्यभावोथी
रहित चैतन्य चमत्कार मात्र परम अर्थनुं अंतरंगमां अवलोकन करे छे (तेनी श्रद्धा करे छे ते रूप लीन
थईने चारित्रभावने प्राप्त थाय छे) तेने ते व्यवहारनय कांईपण प्रयोजनवान नथी.” (जवाब पूरो थयो)