Atmadharma magazine - Ank 208
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : २०८
श्री समयसार आस्रव अधिकारने छेडे–कलस १२२ आप्यो छे तेमां लखे छे के:–
“अहीं आ ज तात्पर्य छे के शुद्धनय त्यागवा योग्य नथी कारण के तेमां अत्यागथी (कर्मनो) बंध
थतो नथी अने तेना त्यागथी बंध ज थाय छे. १२२ पा. र८९
आ बधानो टुंक सार नीचे प्रमाणे छे.
(१) निश्चय नय अने व्यवहार नय एवा बे नयो छे खरा अने तेना विषयो पण छे खरा तेथी ते
बन्नेनुं ज्ञान हेय उपादेय बुद्धिपूर्वक करवुं प्रयोजनवान छे.
(र) ए बन्नेमां निश्चय नयनो विषय जे त्रिकाळ निज ध्रुव चैतन्य स्वभाव ते एक ज सदा काळ
आश्रय करवा योग्य छे.
(३) निश्चय मोक्षमार्ग पोते शुद्ध पर्यायरूप छे तेथी ते पोते वर्तमान अंश होवाथी आश्रय करवा
योग्य नथी पण जाणवा योग्य छे.
(४) प्रवचनसारनी गाथा ९४ नी टीकामां तेने अचलित चेतना विलास मात्र आत्मव्यवहार
कह्यो छे.
(प) पंडित प्रवर श्री बनारसीदासजी तेमनी परमार्थ वचनिकामां कहे छे के:–
सम्यग्ज्ञान (स्वसंवेदन) अने स्वरूपाचरणनी कणिका जाग्ये
मोक्षमार्ग साचो मोक्षमार्ग साधवो ए
व्यवहार एने शुद्ध द्रव्य अक्रियारूप, ते निश्चय छे. ए प्रमाणे निश्चय व्यवहारनुं स्वरूप सम्यग्द्रष्टि जाणे छे,
पण मूढ जीव जाणे नहि अने माने पण नहि.
(६) व्यवहार मोक्षमार्ग तो खरेखर बंध मार्ग छे तेथी खरो मोक्षमार्ग एक ज छे एम श्रद्धा करवी.
– संपादक
परम हर्षनुं कारण
‘मोक्ष सिद्धांत’ नामना प्रकरणमां परमहर्ष व्यक्त
करतां श्रीमद् राजचंद्र लखे छे के–
“श्रुत अल्प रह्या छतां, मतमतांतर घणां छतां,
समाधानना केटलांक साधनो परोक्ष छतां, महात्मा पुरुषोनुं
कवचितत्त्व छतां, हे आर्यजनो! सम्यग्दर्शन, श्रुतनुं रहस्य
एवो परमपदनो पंथ, आत्मानुभवना हेतु सम्यक्चारित्र अने
विशुद्धआत्मध्यान आजे पण विद्यमान छे, ए परमहर्षनुं
कारण छे.”