Atmadharma magazine - Ank 208
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 14 of 21

background image
महा : २४८७ : १३ :
शास्त्र भणवानुं फळ :
: शुद्धात्मानो आश्रय
शास्त्रो भणवानुं तात्पर्य–शुद्धज्ञानमय आत्मानो आश्रय करवो–ते ज छे; ए ज वात संतो
फरमावे छे. जेने शास्त्रना तात्पर्यरूप शुद्धज्ञानमय आत्माना आश्रयनो अभाव छे ते जीव
खरेखर शास्त्रोने भण्यो ज नथी.
प्रश्न :– अगीयार अंग भणवा छतां अभव्य जीवने सम्यग्ज्ञान केम नथी?
उत्तर :– केमके ज्ञाननी श्रद्धानो तेने अभाव छे तेथी अज्ञानी ज छे.
प्रश्न :– ते अज्ञानी जीव मोक्षनो श्रद्धे छे के नहीं?
उत्तर :– मोक्षने पण ते श्रद्धतो नथी, केमके शुद्धज्ञानमय एवा आत्माने ते जाणतो नथी;
शुद्धज्ञानमय आत्मानुं ज्ञान जेने न होय तेने मोक्षनी पण श्रद्धा होती नथी. अने मोक्षनी श्रद्धा वगर गमे
तेटला शास्त्रो पढी जाय तोपण आत्मानो लाभ क्यांथी थाय?–सम्यग्ज्ञान क्यांथी थाय? शास्त्रोनो हेतु तो
शुद्धज्ञानमय आत्मा दर्शावीने मोक्षना उपायमां लगाडवानो हतो, परंतु जेने मोक्षनी ज श्रद्धा नथी तेने
शास्त्रनुं भणतर क्यांथी गुणकारी थाय? माटे, अभव्य जीव ११ अंग भणवा छतां अज्ञानी ज रहे छे.
अभव्यना द्रष्टांत मुजब बीजा भव्य जीवोनुं पण ए ज प्रमाणे समजी लेवुं. अंतर्मुख थईने, रागथी जुदो
थईने, शुद्धज्ञानमय आत्माने जे जाणे छे ते ज सम्यग्ज्ञानी थाय छे.
प्रश्न :– शास्त्रो भणवानुं तात्पर्य शुं छे?
उत्तर :– शास्त्रोनुं तात्पर्य तो भिन्न वस्तुभूत ज्ञानमय आत्मा बताववानुं छे, एवा आत्मानुं
ज्ञान ते ज शास्त्र भणवानुं तात्पर्य छे. जे जीव एवा आत्माने नथी जाणतो ते खरेखर शास्त्रो भण्यो ज
नथी. ज्ञानस्वभावी आत्मा रागथी पण जुदो छे–एम बतावीने शास्त्रो ज्ञानस्वभावनुं ज अवलंबन करावे
छे ने रागादिनुं अवलंबन छोडावे छे.–आ ज शास्त्र तात्पर्य छे, आ ज शास्त्र भणवानो गुण छे. तेनो
(एटले के भिन्नवस्तुभूत शुद्धज्ञानस्वभावी आत्माना ज्ञाननो) जेने अभाव छे तेने शास्त्र भणवाना
फळनो अभाव छे, एटले ते अज्ञानी ज छे.
मोक्षनी श्रद्धा कहो, शुद्धज्ञाननी श्रद्धा कहो, आत्मानी श्रद्धा कहो, के सर्वज्ञनी श्रद्धा कहो,–तेनो
अज्ञानीने अभाव छे. शास्त्रोनुं फळ पण ए छे के रागथी पार शुद्धज्ञानमय आत्मानुं स्वरूप जाणीने तेनो ज
आश्रय करवो.–एम करवाथी ज मोक्षनी श्रद्धा थाय छे, एम करवाथी ज शुद्धज्ञाननी श्रद्धा थाय छे, एम
करवाथी ज आत्मानी अने सर्वज्ञनी श्रद्धा थाय छे. परंतु शास्त्रोमां ज्यां व्यवहारनुं कथन आवे त्यां ते
व्यवहारनी रुचिमां ज जे अटकी जाय छे तेने शास्त्र भणतरना फळनो अभाव छे, एटले आत्मा वगेरेनुं
ज्ञान नहि होवाथी ते अज्ञानी ज रहे छे. आ रीते, जेने व्यवहारनी रुचि छे ते शास्त्र भणे तो पण अज्ञानी
ज छे; अने जेणे शुद्धात्मानी रुचि करीने तेनो आश्रय कर्यो छे तेने बीजुं शास्त्रभणतर कदाच ओछुं होय तो
पण ते सम्यग्ज्ञानी ज छे.
(समयसार गा. र७४ उपरना प्रवचनमांथी
सं. र०१६ आसोवद १२)