: १२ : आत्मधर्म : २०९
प. दर्शनशास्त्रमां स्वसमयनुं निरूपण करती वखते एवा ज ज्ञानने ‘प्रमाणज्ञान’ संज्ञा आपवामां
आवी छे. प्रकृतमां (–यथार्थमां) सम्यग्ज्ञान दर्पणना स्थाने छे. स्वच्छ दर्पणमां जे पदार्थ जे रुपमां
अवस्थित होय छे ते, ते ज रुपमां प्रतिबिम्बित थाय छे ए ज सम्यग्ज्ञाननी स्थिति छे. जेम दर्पणमां
समस्त वस्तु अखंडभावे प्रतिबिम्बित थाय छे तेम प्रमाण ज्ञानमां पण समग्रवस्तु गुण–पर्यायना भेद कर्या
विना अखंडभावे विषयभावने पामे छे. पण तेनो अभिप्राय एम नथी के प्रमाणज्ञान गुणोने अने
पर्यायोने नथी जाणतुं. जाणे छे अवस्य, परन्तु ते तेना सहित समग्र (–समस्त) वस्तुने गौण–मुख्यनो भेद
कर्या विना युगपत् (एकीसाथे) जाणे छे. आना आश्रये ज्यारे कोई एक वस्तुने कोई एक धर्मनी
मुख्यताथी प्रतिपादन पण करवामां आवे छे त्यारं तेमां बीजा संपूर्ण वस्तुनुं कथन करवावाळो मानवामां
आव्यो छे. आ तो प्रमाणज्ञान अने तेना आश्रये थवावाळा वचन व्यवहारनी स्थिति छे.
६. हवे थोडो नयद्रष्टिथी तेनो विचार करीए, एमतो सम्यग्द्रष्टिनां क्षायोपशयिक अने क्षायिक रूपे
जेटलां जेटलां कोई पण ज्ञान छे ते बधां प्रमाण ज्ञान ज छे, परन्तु प्रमाणज्ञाननो श्रुतज्ञान एक एवो भेद
छे के जे प्रमाणज्ञान अने नयज्ञान एम उभयरूप होय छे.
“
तत्र प्रमाणं द्विविधम्–स्वार्थं परार्थं च। तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्जम्। श्रुतं पुनः स्वार्थं भवति
परार्थं च। ज्ञानात्मकं स्वाथं वचनात्मकं परार्थम्। तद्विविकल्पा नयाः।”
प्रमाणना बे भेद छे स्वार्थ अने परार्थ तेमांथी श्रुत सिवायनां बाकीना बधां ज्ञान स्वार्थप्रमाण छे,
परन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ अने परार्थ बन्ने प्रकारनुं छे. ज्ञानात्मक स्वार्थ प्रमाण छे अने वचनात्मक पराथ
प्रमाण छे. तेनो भेद नय छे.
८. तात्पर्य ए छे के अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान अने केवळज्ञान ईन्द्रिय आदिने निमित्त कर्या विना
ज विषयने ग्रहण करवा माटे प्रवृत्त थाय छे, तेथी ए तो पोतपोतानी योग्यताअनुसार समग्र वस्तुने
अशेष (संपूण) भावथी ग्रहण करे छे तेमां संदेह नथी. पण जे ज्ञान पांच ईन्द्रियो, मन अने प्रकाश आदिने
निमित्त करीने प्रवृत्त थाय छे ते पण समग्र वस्तुने अशेषभावथी ग्रहण करे छे, केमके ते ज्यांथी मनने
निमित्त करी चिन्तनधारानो प्रारंभ थाय छे तेनाथी पूर्ववर्ती ज्ञान छे.
९. हवे रह्युं श्रुतज्ञान ते आ चिन्तनधाराना बेउरूपे होवाथी बन्नेरूप मानवामां आव्युं छे [बे प्रकार
एटले प्रमाणरूप अने नयरूप] श्रुतज्ञानमां मननो जे विकल्प अखंडभावे वस्तुनो स्वीकार करे छे ते
प्रमाणज्ञान छे अने जे विकल्प१ कोई एक अंशने मुख्य करी अने बीजा अंशने गौण करी वस्तुनो स्वीकार
करे छे ते नयज्ञान छे.
१०. सम्यक्श्रुतनो भेद होवाथी नयज्ञान पण तेटलुं ज प्रमाण छे के जेटलुं प्रमाणज्ञान छे, तो पण
शास्त्रकारोए तेने जे अलगरूपे गणतरीमां लीधुं छे तेनुं कारण विवक्षा विशेष (खास प्रकारनुं कथन) ने
देखाडवा मात्र छे.
जे ज्ञान समग्र वस्तुने अखंडभावे स्वीकार करे छे तेनी तेओए प्रमाण संज्ञा राखी छे अने जे ज्ञान
समग्र वस्तुना कोई एक अंशने मुख्य करी अने बीजा अंशने गौण करी स्वीकार करे छे तेनी तेओए नय
संज्ञा राखी छे.
११. सम्यग्ज्ञानना प्रमाण अने नय बे भेद करवानुं ए ज कारण छे, पण ए भेदोने जोईने जो
१. विकल्प–भेद; व्यापार.