Atmadharma magazine - Ank 209
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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फागण : २४८७ : १३ :
कोई सर्वथा एम समजे के सम्यग्ज्ञाननो भेद होवा छतां पण प्रमाणज्ञान यथार्थ छे परन्तु नम्रज्ञान
नथी, तो तेनुं ए रीते समजवुं यथार्थ नथी केम के जे प्रकारे प्रमाणज्ञान द्वारा जे वस्तु जे रूपमां अवस्थित होय
छे ते रूपे जाणवामां आवे छे ते ज प्रकारे नयज्ञाननुं प्रयोजन पण यथावस्थित वस्तुनुं ज्ञान कराववानुं छे.
१२. ए बन्नेमां कांई अंतर होय तो एटलुं ज के प्रमाणज्ञानमां अंशभेद अविवक्षित रहे छे, ज्यारे
नयज्ञानमां अंशभेद विवक्षित होवाथी ते द्वारा वस्तुनो स्वीकार करवामां आवे छे तेथी नयनुं लक्षण करतां
आचार्य श्री पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि (अ. १. सू. ३३)मां कहे छे के:–
अनेकान्तात्मक वस्तुमां विरोधविना वस्तुनी मुख्यताथी साध्य विशेषनी यथार्थताने प्राप्त कराववामां
समर्थ प्रयोगने नय कहे छे.
१३. आचार्य श्री पूज्यपादे नयनुं आ लक्षण नयसप्तभंगीने लक्षमां लईने वचननयनुं कह्युं छे.
तत्त्वार्थवार्त्तिकमां नयनुं लक्षण करती वखते भट्ट अकलंकदेवनी पण ते ज द्रष्टि रही छे. ज्ञान सम्बन्धी नयनुं
लक्षण करतां नयचक्रमां आवुं वचन आवे छे के– “वस्तुना एक अंशने ग्रहण करवावाळो जे ज्ञानीनो विकल्प
(व्यापार) होय छे के जे श्रुतज्ञाननो एक भेद छे तेने अहीं नय कहेवामां आवेल छे, अने जे नयज्ञाननो
आश्रय करे छे ते ज्ञानी छे.” १७४.
१४. अहीं प्रश्न थाय छे के वस्तु तो अनेकान्तात्मक छे तेमां एक अंशने ग्रहण करवावाळा ज्ञानने नय
कहेवो उचित नथी. आ प्रश्न नयचक्रना कर्तानी सामे पण रह्यो छे. तेओ तेनुं समाधान करतां कहे छे के:–
“कारण के नय विना मनुष्यने स्याद्वादनी प्रतिपत्ति–(प्रतीति) थती नथी तेथी जे एकान्तना आग्रहथी मुक्त
थवा मागे छे तेने नय जाणवा योग्य छे.” १७प.
१प. आ तत्त्वने पुष्ट करतां वळी तेओ कहे छे:– “जेम सम्यक्त्वमां श्रद्धानी मुख्यता छे, जेम गुणोमां
तपनी मुख्यता छे अने जेम ध्यानमां एकरस ध्येयनी मुख्यता छे तेवी ज रीते अनेकान्तनी सिद्धिमां नयनी
मुख्यता छे” १७६.
१६. अहीं प्रश्न थाय छे के अनेकान्तनी स्रिद्धि प्रमाण सप्तभंगी द्वारा थई जाय छे. तेने माटे
नयसप्तभंगीनी आवश्यकता नथी, तेथी सम्यग्ज्ञान प्रमाणरूप ज भले रहे, तेनो एक भेद नय पण छे एवुं
मानवानी शी जरूर छे? समाधान एम छे के जे कांई वचनप्रयोग थाय छे ते नयस्वरूप ज होय छे. लोकमां
एवुं एक पण वचन होतुं नथी के जे खास धर्मवडे वस्तुनुं प्रतिपादन न करतुं होय. उदाहरणरूपे ‘द्रव्य’ शब्द
ज लईए. तेने आपणे ‘जे गुण–पर्यायवाळुं होय’ के ‘उत्पाद, व्यय अनेघ्रौव्य सहित होय’ आ अर्थमां रूढ
करीने द्रव्यनी व्याख्या करीए छीए पण तेनो यौगिक अर्थ ‘जे द्रवे छे अर्थात् अन्वित होय छे ते द्रव्य’ ए
ज थाय छे, माटे जेटलो वचनव्यवहार छे ते तो नयरुप ज छे. तो पण आपणे प्रमाणसप्तभंगीना दरेक
भंगमां कोई ठेकाणे स्यात् शब्द वडे अभेदवृत्ति करीने अने कोई ठेकाणे ते ज वडे अभेद उपचार करीने ते
सर्व भंगोना समुदायने प्रमाणसप्तभंगी कहीए छीए.
१७. प्रथम भंग द्रव्यार्थिक नयनी मुख्यताथी कहेवामां आवे छे. तेमां अभेदवृत्ति विवक्षित रहे छे,
बीजो भंग पर्यायार्थिकनयनी मुख्यताथी कहेवामां आवे छे माटे तेमां अभेदउपचार विवक्षित रहे छे अने
बाकीना पांच भंग क्रमथी अक्रमथी (एक साथे) बन्ने नयोनी मुख्यताथी कहेवामां आवे छे, माटे तेमां ए
ज विधिथी अभेदवृत्ति अने अभेदउपचारनी मुख्यता रहे छे. दरेक वचन नयस्वरूप ज होय छे पण ते
वक्तानी विवक्षा (कहेवानो ईरादो) उपर आधार राखे छे के ते कये ठेकाणे, कया वचननो, कया अभिप्रायथी
प्रयोग करी रहेल छे. तेथी तत्त्व अने तीर्थनी स्थापना