फागण : २४८७ : १प :
पद्मनंदी पंचविंशतिका –
दान अधिकार
परम पूज्य सदगुरूदेव श्री कानजीस्वामीनुं प्रवचन – –
जामनगर मंगळवार ता. १७–१–६१ महा सुदी १
१. आचार्य जगतना जीवोने लोभरूपी उंडा कूवानी भेखडमांथी बहार काढवा माटे तृष्णा घटाडवानो
उपदेश करे छे.
२. दानमां पुण्यभाव छे अने अ धर्मीजीवने पण होय छे.
३. अहीं दाननी वात धर्मी जीवनी मुख्यताथी कहे छे.–आ आत्मा शुद्ध ज्ञाननी मूर्ति छे शरीर, मन
वाणीथी पार छे, पुन्य पापना भाव थाय ते कृतिम, अनित्य उपाधि छे, बाह्य संयोगोने उपाधि कहेवी ते
व्यवहार कथन छे. खरेखर संयोग उपाधि नथी पण निरूपाधिक ज्ञाता द्रष्टानुं भान भूलीने जेटली शुभाशुभ
लागणी प्रगट करे ते चैतन्य स्वभावथी विरुद्ध उपाधिभाव छे–तेनाथी बंधन छे. धर्म जुदो छे पुन्य जुदी
चीज छे एटले के बंधननुं कारण छे. माटे प्रथम श्रद्धामां पुण्य–पाप बेउने उपाधि जाणी दूर करवा मागे ते
धर्मी छे.
राग ढळी जाय पछी श्रद्धा थाय एम नथी. राग होवा छतां तेनाथी भेदज्ञान वडे स्वसन्मुख थई
आत्मानो अनुभव थई शके छे. जेमजळमां शेवाळने दूर करी तृषावंत प्राणी तृषा टाळवा माटे स्वच्छ जळ
पीवे छे. तेम पुण्यपापरूपी सेवाळने भेदज्ञान वडे दूर करीने निरूपाधिक स्वरूपनो अनुभव थई शके छे–पुण्य
करतां करतां पवित्रता थशे एम कहेनारा धर्मना नामे अधर्मनुं पोषण करे छे,–धर्म एटले आत्मामां स्वाश्रते
थती निर्मळदशा अथवा सुख; तेने साधनारा साधक कहेवाय छे, तेने धर्मनी मूर्ति कहेवाय छे.
४. जेना हृदयमां धर्मनी रूचि छे ते स्वर्गना देवो पण मनुष्यपणामां आवी धर्मनी साधना जल्दी पूर्ण
करवानी भावना भावे छे. अने वीतरागता टकी रहे एम धर्मी प्रत्ये बहुमान लावी, दान देवानी भावना
भावे छे. ए रीते क्यारे मनुष्यपणुं पामीने आत्मकार्य पूर्ण करीए एवी धर्मी देवो भावना भावे छे.
प. विकारनी पार ज्ञायकपणानी द्रष्टि जेने थई छे ते धर्मद्रष्टिवंत थयो कहेवाय. तेने दान, पूजा
भकितनो शुभभाव आवे छे–धर्मात्माने–संतोने बराबर ओळखे छे अने दान आपे छे, तथा अनुमोदना करे
छे. त्रणेकाळ साधकजीवो एटले वीतरागताने साधनारा टकी रहो ने हुं शीध्र पूर्ण परमात्म दशा प्राप्त करू
एवी भावना धर्मी जीवने होय छे.